सवर्णों को आरक्षण, जुमला राजनीति का अगला पड़ाव है

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भारत में आर्थिक उदारीकरण के जनक पीवी नरसिंहा राव प्रधानमंत्री थे, तब तक देश में मंडल आंदोलन की आग धीमी नहीं पड़ी थी. उससे थोड़ा पहले ही आडवाणी की रथयात्रा को लालू यादव ने समस्तीपुर में रोक दिया था लेकिन उत्तर भारत की आबोहवा में और सवर्णों के मन में पिछड़ों और दलितों के प्रति गुस्सा कम नहीं हुआ था.
देश के सवर्ण यद्यपि कांग्रेस पार्टी के साथ ही थे लेकिन अच्छे-खासे नाराज हो चले थे, शायद राजीव गांधी की हत्या से भी सवर्णों का कांग्रेस से मोहभंग हुआ था. वे हर हाल में कांग्रेस का साथ छोड़ना चाहते थे लेकिन अभी तक भाजपा ने वैसा कोई पासा नहीं फेंका था जिससे कि वे उसे अपना मान पाते. हां, अरुण जेटली के नेतृत्व में एबीवीपी से जुड़े कई नए युवा खुलेआम आरक्षण विरोधी आंदोलन को हवा दे रहे थे. (वे खुलकर नहीं बोल पा रहे थे). आरक्षण विरोधियों को हवा देने में दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रावासों में जाकर राजीव गांधी के ततत्कालीन सखा व वर्तमान में भाजपा सरकार में मंत्री एसएस अहलुवालिया जैसे लोग भी शामिल थे.
फिर भी तरह-तरह की बयानबाजी का यह असर तो हो ही गया था कि सवर्ण मानने लगे थे कि कांग्रेस अब उनकी ‘अपनी’ पार्टी नहीं रही. सितबंर, 1991 में पीवी नरसिंहा राव ने गरीब सवर्णों के लिए 10 फीसदी आरक्षण देने की घोषणा की. मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और उसे खारिज कर दिया गया. कांग्रेस को इसका बहुत लाभ नहीं हुआ, सवर्ण सुविधानुसार भाजपा के साथ जाने लगे. लेकिन सवर्णों का यह कदम बेहद टैक्टिकल था. जहां कांग्रेस मजबूत है वहां कांग्रेस के साथ लेकिन जहां भाजपा आगे बढ़ रही थी, वे भाजपा के साथ हो लिए. सवर्णों के इस टैक्टिकल मूव की मुख्य लाभार्थी भाजपा ही थी. अटल बिहारी वाजपेयी शनै: शनै: ब्राह्मण समुदाय के सबसे बड़े नेता बनने की ओर अग्रसर हो गए और सवर्ण लगभग पूरी तरह उसके साथ हो लिया.
90 का उत्तरार्ध आते-आते राजनीति ने करवट बदली और भाजपा खुद को हिन्दू राष्ट्र के चैंपियन के रूप में पेश किया. पिछड़ों और दलितों को आरक्षण तो चाहिए था, लेकिन हिन्दू राष्ट्र भी उन्हें मनमाफिक ही लग रहा था क्योंकि हिन्दू राष्ट्र और हिन्दुवाद का फर्क उन्हें समझ में नहीं आ रहा था. जब भी पिछड़ों के आरक्षण पर बात होती थी तो आरक्षण समर्थक रामविलास पासवान जैसे कई नेता कहने लगते थे कि हम गरीब सवर्णों को आरक्षण दिए जाने के पक्ष में हैं. अर्थात दलित व पिछड़े जनमानस को मानसिक रूप से तैयार कर लिया गया था गोया आरक्षण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम हो.
सवाल उठता है कि एकाएक ऐसा क्या हुआ कि भाजपा को सवर्णों के लिए दस फीसदी आरक्षण दिए जाने की घोषणा करनी पड़ी? इसका एक कारण तीन हिन्दी भाषी राज्यों में भाजपा का सत्ता से बाहर कर दिया जाना भी है. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा 15 वर्षों से लगातार सत्ता में थी जबकि राजस्थान वह राज्य था जिसने भाजपा को केन्द्र में लाने में मदद की थी.
2013 में इन्हीं तीनों राज्यों की जीत से वह माहौल बनाया गया कि नरेन्द्र मोदी के अलावा देश के पास कोई विकल्प नहीं है. अब मोदी द्वारा चुनाव से पहले किए गए वायदों पर खरा न उतर पाने की असफलता ने भाजपा नेताओं और उसके समर्थकों को ‘कुछ कर दिखाने’ के लिए बाध्य कर दिया है. मोदी सरकार की असफलता ने राहुल गांधी को नेता बना दिया. जिस तरह राफेल के मामले में वो मोदी सरकार को घेर रहे हैं, उससे मोदी की तथाकथित ईमानदार छवि काफी हद तक धूमिल हुई है.
भाजपा के भीतर का आकलन यह है कि पार्टी इन तीन राज्यों में इसलिए चुनाव हारी है क्योंकि सवर्णों ने उसे वोट न देकर कांग्रेस को वोट दे दिया है. भाजपा को लग रहा है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सरकार ने जिस तरह एससी-एसटी एक्ट में संशोधन किया उससे भी सवर्ण नाराज थे. कुल मिलाकर भाजपा इतनी बेसब्र है कि इनको लग रहा है कि कहीं सवर्ण मतदाता भी उससे न छिटक जाएं.
आरक्षण देने का काम विभिन्न राज्य सरकारों ने समय-समय पर किया है. 2017 में गुजरात के विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा सरकार ने घोषणा की कि छह लाख तक की वार्षिक आय वालों के लिए 10 फीसदी आरक्षण दिया जाएगा. लेकिन इसे कोर्ट ने खारिज कर दिया. यही काम राजस्थान सरकार ने 2015 में किया था जब कथित ऊंची जाति के गरीबों के लिए 14 फीसदी और पिछड़ों में गरीबों के पांच फीसदी आरक्षण की प्रावधान किया था. उसे भी खारिज कर दिया गया. हरियाणा सरकार ने भी ऐसा किया था लेकिन न्यायालय ने उसे भी खारिज कर दिया. तेलंगाना में अल्पसंख्यकों के लिए सरकार ने 12 फीसदी आरक्षण की घोषणा की थी जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया.
आरक्षण की हक़ीकत
दरअसल भाजपा की यह घोषणा उसके तमाम जुमलों का ही विस्तार है. गरीब सवर्णों या किसी भी अन्य तबके के लिए आरक्षण की जो तकनीकी जरूरतें हैं उन्हें समझने के बाद ही भाजपा की इस चाल को समझा जा सकता है. पहला तरीका तो यह है कि सरकार ने आरक्षण की घोषणा कर दी लेकिन इसे अदालत में चुनौती दी जाएगी और यह हर हाल में रद्द हो जाएगा. सवर्णों को आर्थिक आधार पर आरक्षण दिए जाने का फैसला न्यायालय में नहीं टिक सकता.
इसका दूसरा तरीका है संविधान में संशोधन. अगर यह संशोधन होता है तो यह हमारे संविधान का 124वां संशोधन होगा. संविदान संशोधन एक जटिल प्रक्रिया है. इसके लिए संसद के दोनों सदनों में सत्तादारी पार्टी के पास दो-तिहाई बहुमत चाहिए जो कि भाजपा के पास है नहीं. इसके अलावा मौजूदा सरकार अपने अंतिम दौर में है. संसद के सीतकालीन सत्र का आज (8 जनवरी) अंतिम दिन है. जाहिर है इसे पास कराने के लिए सरकार के पास वक्त नहीं बचा है. इसके बाद एक बजट सत्र शेष है लेकिन उसमें भी सरकार की प्राथमिकता बजट पास कराना होगा. लिहाजा संविधान संशोधन बिल पास कराना लगभग असंभव है.
एक तरफ सरकार सवर्णों को आरक्षण देने का घोषणा कर रही है, दूसरी तरफ सरकारी नौकरियों पर रोक लगा दी गई है. ज्यादातर पद अस्थायी, अल्पकालिक नीतियों से भरे जा रहे हैं. तो सवाल यह भी है कि आखिर सवर्णों को आरक्षण मिलेगा कहां? निजी क्षेत्रों में वैसे भी आरक्षण नहीं है इसका मतलब यह हुआ कि वहां पहले से ही सवर्ण मौजूद हैं. भाजपा ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में कहा था कि हर साल दो करोड़ युवाओं को रोजगार दिया जाएगा जबकि साल के पहले दिन सेंटर फॉर मानिटरिंग इन इंडियन इकोनॉमी तथ्यों के साथ बताया है कि सिर्फ 2018 में एक करोड़ दस लाख लोग बेरोजगार हो गए हैं.
अब आरक्षण के गणित का थोड़ा जोड़-घटाव करें. कहा जाता है कि देश की 15 फीसदी आबादी सवर्ण है जिसे 10 फीसदी आरक्षण दिया जाएगा तो इस हिसाब से 52 फीसदी पिछड़ों को 27 नहीं बल्कि 36 फीसदी आरक्षण बनता है. अर्थात सरकार यह मान रही है कि सवर्ण पिछड़ों की तुलना में ज्यादा गरीब व उत्पीड़ित है या फिर सरकार यह मान रही है कि पिछड़ी जाति के लोग सवर्णों से अमीर है. इसी 10 फीसदी के हिसाब से यह भी मानना पड़ेगा कि हर तीन सवर्ण में दो सवर्ण गरीब है अर्थात सवर्णों की 67 फीसदी आबादी गरीबी में जी रहा है मतलब 20 करोड़ सवर्ण में 15 करोड़ सवर्ण दीन-हीन है. इसी तरह पिछड़ों के 27 फीसदी आरक्षण के हिसाब से मानना पड़ेगा कि पिछड़ों में केवल 50 फीसदी आबादी गरीब है, जबकि सवर्णों की दो तिहाई आबादी यानी 67 फीसदी सवर्ण गरीब हैं. मतलब यह कि मौजूदा आरक्षण प्रणाली के अनुसार पिछड़े इस देश में सबसे अमीर है, और उनसे गरीब सवर्ण है. मतलब यह कि 8 लाख से कम आमदनी वाला सवर्ण गरीब और 8 लाख से कम आमदनी वाला ओबीसी पिछड़ा. मतलब गरीब माने जाने पर सवर्णो को ज्यादा आरक्षण और पिछड़ा होने पर आरक्षण खत्म.
सरकार का इरादा तो साफ है कि वह सचमुच सवर्ण गरीबों के लिए कुछ भी करने नहीं जा रही है क्योंकि पूरा देश और समाज अब बाजार के हवाले है. सवर्णों को दस फीसदी आरक्षण दिए जाने की घोषणा से सबसे अधिक चिंता दलित-बहुजन विचारधारा की राजनीति के लिए है. पहले सवर्णों को भी अपनी बात मनवाने के लिए धरना प्रदर्शन करना पड़ता था. अब वे बस वर्चुअल स्पेस में दवाब बनाते हैं और उनकी सारी नाजायज-जायज मांगें मान ली जाती हैं. क्योंकि सत्ता-प्रतिष्ठानों में वही बैठे हुए हैं. जबकि दलित-बहुजनों का ऐसा कोई दवाब सत्ता प्रतिष्ठान के ऊपर काम नहीं करता, क्योंकि उनकी मौजूदगी ऊपरी तल पर है ही नहीं.
दलितों, पिछड़ों की विधायिका में जो भी मौजूदगी थी, वे अब अपने व अपने परिवार के लिए वहां बैठे हैं. वे अपने में, अपने परिवार में, अपने हित में, अपने भ्रष्टाचार में इतने मगन हैं कि उन्हें लगता ही नहीं है कि उन्हें समाज के एजेंडे पर बात करनी चाहिए.
अंत में, मोदी सरकार की पूरी कोशिश यही है कि बेरोज़गारी और उनके समय में हुए सामाजिक और आर्थिक विकास की बहस सिर्फ आरक्षण पर सिमटकर रह जाए. मतलब यह कि चुनावी महीनों के आखिरी हफ्ते में हर गली, मुहल्ले, नुक्कड़ और यहां तक डायनिंग टेबल पर सरकार की असफलता या फिर सफलता या काम-काज पर चर्चा न हो, चर्चा हो तो सिर्फ आरक्षण पर हो. और सरकार इसमें सफल रहेगी. लाभ की तो गुंजाइश नहीं दिखती लेकिन इसके लिए भी चुनाव का इंतजार तो करना ही पड़ेगा.

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