पैसे का नशा

राष्ट्रीय जजमेंट

जमाना तो बदला ही पर साथ में इंसान की सोच भी बदल गयी ।इस आर्थिक उन्नति के पीछे भागते हुये इंसान रिश्तों की मर्यादा भूल गया।आज अख़बार में प्रायः पढ़ने को मिलता है कि अमुक व्यक्ति ने अपने पिता की जायदाद हासिल करने के लिए बाप-बेटे के रिश्ते को तार-तार करते हुये स्वयं को जन्म देने वाले और उसकी परवरिश करने वाले माँ-बाप को एक मिनिट में छोड़ देता है या और कुछ कर देता है ।

वर्तमान समय को देखते हुये सामाजिक स्तर पर इंसान ने भौतिक सम्पदा ख़ूब इकट्ठा की होगी और करेंगे भी पर उनकी भावनात्मक सोच का स्थर गिरते जा रहा है।जो प्रेम-आदर अपने परिवार में बड़ों के प्रति पहले था वो आज कंहा है ? आज के युग में इंसान का यही सोच होते जा रहा है कि”बाप बड़ा ना भैया” सबसे बड़ा “रुपैया” ।

अर्थ की धूरी पर ही लगता है सारे तंत्र घूम रहे हैं । पैसे को हाथ का मैल बताने वाले भी उसी दलदल मे डूब रहे हैं । बुद्धि, विवेक भी धुंधला जाते है अगर पैसा पास न हो तो । पैसे को नशा बताने वाले भी उसी के नशे मे झूम रहे हैं । आज हम दुनिया देखते है तो जाना की रावण अकेला नहीं था जिसके पास दस चेहरे थे। हर इंसान के पास कई चेहरे है यही तो वजह है की कुछ कहने से पहले आज हर इंसान सोचता है की किस मुँह से कहूँ। नीयत की तो बात ही ना पूछे दोमुहे सांप जब पहुंचे इंसानों के पास तो वो देखकर घबरा गए की हमसे ज्यादा चेहरे हैं इंसानों के पास बिल्कुल नज़र -नीयत ख़राब रखते हैं लोग पहरे चढ़ा कर दूसरों को दोगला बताते है खुद चेहरे पर चेहरे चढ़ा कर।

पैसे की तो बात ही क्या जहाँ रूतबा पहले ज्ञान का था,आत्म-सम्मान का था,इज़्ज़त और राज-धर्म का था वहाँ पैसा भगवान बना बैठा है। आज की पीढ़ी इन सबसे अनजान वह तो समझे पैसा है तो सब कुछ ये बात सीखते जाते, दूर होते इंसान से ये किताब पढ़ते जाते हैं । जहाँ रिश्तेदारी पैसों की प्यार कहाँ रूहानी है नीचे गिरते हर इंसान की बस यही कहानी है। पैसे का नशा मनुष्य जन्म का मूल उद्देश्य ही भुला देता है और मदांध कर देता है ।

अतः जरूरी है कि कमाई और आध्यात्म में संतुलन के साथ मनुष्य जन्म के मुख्य उद्देश्य में मन रमा रहे ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़)

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