अमेरिकी विश्वविद्यालय और उनका भारत विरोधी दृष्टिकोण पुस्तक “द प्यूरिटन मूवमेंट” का जेएनयू में विमोचन
नई दिल्ली: जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कन्वेंशन सेंटर में “द प्यूरिटन मूवमेंट” पुस्तक विमोचन कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस पुस्तक के लेखक राहुल तिवारी हैं, जो वर्तमान में के डॉक्टरेट शोधार्थी के छात्र हैं। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक जे. नंदकुमार और विशिष्ट अतिथि के रूप में मालती प्रकाशन के निर्देशक भरत शर्मा और लेखक अरुण आनंद भी मौजूद रहे।
यह पुस्तक अमेरिकी शैक्षिक व्यवस्था और उसके भारतीय प्रभावों पर ध्यान केंद्रित करती है, जो सामाजिक, राजनीतिक, और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। यह पुस्तक एक व्यापक अध्ययन है जो शिक्षा, संस्कृति, और राजनीति के तंत्र को विश्लेषित करती है और आधुनिक समाज के विकास में योगदान करती है।
कार्यक्रम की शुरूआत करते हुए भरत शर्मा ने कहा, “यदि अब्राहमिक पंथों के इतिहास को देखेंगे, तो हम यह पाते कि इनका हमेशा से आपसी झगड़ा रहा हैं और अमेरिका के अधिकतर विश्वविद्यालय ईसाई मजहब का पाठ पढ़ाने वाले सेमिनरी की तरह कार्य करते रहे है।”
वहीं पुस्तक के लेखक राहुल तिवारी ने कहा, “अमेरिका के विश्वविद्यालयों में हमेशा से ईसाई प्रोपेगंडा चलाया गया है तथा एंटी इंडिया और रूस के खिलाफ एक माहौल बनाकर रखा जाता रहा है। अपना प्रोपेगंडा चलाने के लिए भारत के लोगों का ही भारत में इस्तेमाल किया जा रहा जिसमे मुख्य तौर पर ये सो कॉल्ड लिबरल, सेक्यूलर और प्रोग्रेसिव तथा वामपंथी विचारधारा से प्रेरित लोग शामिल हैं।
वहीं प्रतिष्ठित वक्ता अरुण आनंद ने कहा, “अमेरिका वास्तव में माफियाओं का एक सरगना है। पूरे समस्त विश्व को 50 मिलिट्री इंडस्ट्रियल कॉम्पलेक्स के द्वारा द्वारा चलाया जा रहा है जिसका विरोध भारत 2014 से करते आया हैं। यह बुक काउंटर-नैरेटिव पर ज़्यादा फोकस्ड है लेकिन फिर इस बुक में नैरेटिव्स सेट करने के बीज हम पाते हैं।”
पुस्तक विमोचन के मुख्य अतिथी नंद कुमार ने कहा, “पुस्तक का नाम “द प्यूरिटन मूवमेंट” बिल्कुल सही रखा गया है जिसमे तथाकथित वामपंथियों, लिबरलों, सेक्यूलरो तथा इस्लामी चरमपंथियों को एक्सपोज करते हुए यह बताया है कि ये सभी एक साथ मिलकर काम करते है। नेहरू वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सबसे पहले बताया था कि संस्कृत एक मृत भाषा हैं और महात्मा गांधी कभी भी उनके समाजवाद के सिद्धांतों से सहमत नहीं थे। इस कारण नेहरू के समर्थकों ने गांधी के विचारों को हो गांधीवादी समाजवाद का नाम दे दिया और पूरे देश में प्रोपेगंडा चलाया। हमारे देश में टॉलरेंस को कभी स्थान नहीं दिया गया है, लेकिन “सर्वधर्म समभावना” का अनुकरण हम हमेशा से करते आए हैं।”
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