लोकतंत्र के मुखौटे में, तानाशाही का दौर लाने की प्रक्रिया हो चुकी है शुरू
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सरकार भले अपने वायदे पूरे न करे लेकिन वह कहना शुरू कर देती है कि हमने ये सब पूरा कर दिया. हमारा घोषणा पत्र नब्बे प्रतिशत पूरा हो गया है, अस्सी प्रतिशत पूरा हो गया है, सौ प्रतिशत पूरा हो गया है. क्या पूरा हुआ, ये नहीं बताना है. जनता अगर ये सब नहीं देख पा रही है तो यह उसके नजर का दोष है, बुद्धि का दोष है.
और अगर आप सवाल उठाते हैं तो आप इस देश के नहीं हैं. विदेशी ताकतों के पक्षधर हैं. क्योंकि हमारे देश में अब सवाल उठाना देश प्रेम नहीं माना जाता. हमारे देश में अब सवाल उठाना देशद्रोह की श्रेणी में आ गया है. शायद इसलिए अब सवालों की दिशा ही बदल गई.
अब सवालों की दिशा वहां पहुंच गई है, जहां कहा जा रहा है कि हम राम मंदिर बनाएंगे, देश के 18 प्रतिशत लोगों को मुख्यधारा से बाहर करेंगे. इस बार मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में तो कमाल हो गया. जैसे पिछले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने 482 उम्मीदवारों में सिर्फ 7 मुस्लिम को टिकट दिए थे. वह भी ज्यादातर कश्मीर और पश्चिम बंगाल में.
ये सातों मुस्लिम भाजपा उम्मीदवार चुनाव हार गए. आज भाजपा में एक भी मुस्लिम लोक सभा सांसद नहीं है. इससे भी एक कदम आगे बढते हुए, भाजपा ने इस बार छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में किसी भी मुसलमान को भारतीय जनता पार्टी ने टिकट नहीं दिया है.
युसूफ खान राजस्थान में इतने सालों से मंत्री थे और भाजपा का झंडा अकेले ढो रहे थे, जिन्होंने मुस्लिम समाज में बंटवारे के लिए जी जान से कोशिश की और भारतीय जनता पार्टी के साथ उन्होंने मुसलमानों को जोड़ा भी, उनका भी टिकट इस बार भारतीय जनता पार्टी ने काट दिया है. शायद उन्हें ये झुनझुना थमाया गया है कि आनेवाले लोकसभा चुनाव में टिकट दिया जाएगा. वैसे इसमें कोई हर्ज नहीं है. राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में मुसलमानों की संख्या क्रमश: छह, सात और आठ प्रतिशत है.
पिछले पंद्रह सालों में मध्य प्रदेश में, छत्तीसगढ़ में, पांच सालों में राजस्थान में सरकारों ने क्या वायदे किए, राजनीतिक दलों ने क्या वायदे किए, उन वायदों को उन्होंने निभाया या नहीं निभाया या जो कहा था उसका कितना प्रतिशत वायदा पूरा हुआ, इसे लेकर लोगों में कोई चिंता नहीं है. हर चुनाव में एक भीड़ आती है, जो राजनीतिक दलों से पैसे लेती है, ढोल बजाती है, माइक हाथ में लेकर शोर करती है और ऐसा लगता है जैसे वो भीड़ उसी शोर के इर्द-गिर्द सिमट कर किसी को वोट भी दिला देती है.
इस सारे शोर के बीच में नौजवान का रोजगार कहां है? जिस नौजवान को देश का भविष्य कहते हैं, उसकी समझ कहां है, उसकी चिंता कहां है, कहीं दिखाई नहीं देती. ये चिंता उन बुजुर्गों को भी नहीं है, जिनके अपने बच्चों का भविष्य अनिश्चित है और न उन्हें ये चिंता है, जो युवाओं को अच्छे भविष्य का सपना दिखाकर सत्ता में आते हैं. जिसने पांच, दस या पंद्रह सालों में वायदे पूरे नहीं किए वो आनेवाले पांच सालों में क्या अपने वायदे पूरे करेंगे? इस पर किस तरह भरोसा करें, ये भी चिंता का विषय है. लेकिन अब जनता को शायद ये सब चिंता नहीं है.
वो चुनाव के ऊपर कोई असर नहीं डाल सकते. लेकिन यहां चुनाव पर असर डालने का सवाल नहीं है. यहां ये समझना जरूरी है कि देश का नेता सारे दुनिया में 125 करोड़ शब्द का डंका बजा रहा है. अभी सिंगापुर में हुई मीटिंग में 125 करोड़ शब्द फिर सुनाई दिया. 2014 में भी 125 करोड़ शब्द सुनाई दिया था तो क्या इस 125 करोड़ में इस देश में रहने वाले वो करीब 22 करोड़ लोग शामिल नहीं है. क्या मुसलमान 125 करोड़ का हिस्सा नहीं है. इन चुनावों से तो यही साबित हो रहा है.
अब ये तो 18 प्रतिशत जनसंख्या यह जाने कि उनकी किस कमी की वजह से भारतीय जनता पार्टी उन्हें इस देश का हिस्सा नहीं मान रही है. भाजपा यह सुनिश्चित कर रही है कि इस देश को लेकर लिये जानेवाले फैसलों में उनकी कोई भूमिका न हो. यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है.
यहां सवाल कांग्रेस का और दूसरे दलों का भी है, जो इसी रास्ते पर चल रहे हैं. ये लोग भी तो भारतीय जनता पार्टी की नीतियां, भाषा अपना रहे हैं और भारतीय जनता पार्टी के नक्शे-कदम पर अपनी रणनीति बना रहे हैं. ये लोग भी कोई नई बात देश के सामने, प्रदेश के सामने नहीं रख रहे हैं. ये भारतीय जनता पार्टी की बातों को दूसरे रंग में रंग कर, अपनी भाषा में प्रस्तुत कर रहे हैं. ये चुनाव बताते हैं कि अब हमें चुनाव के नाम पर तमाशा देखना होगा और जो लाग चुने जाएंगे वो इस देश का भला करेंगे, इसमें संदेह है. ये बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है. इसी स्थिति का सामना हमें 2019 लोकसभा चुनाव में भी करना पड़ेगा.
अब यह साफ हो गया है कि 2019 के चुनाव किन मुद्दों पर लड़े जाएंगे. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के चुनाव साफ-साफ बता गए कि गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे अब भारतीय राजनीति को झकझोरते नहीं है और दोनों दल भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस इन मुद्दों से सावधानीपूर्वक अपने को बचाकर ले गईं. हम भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की आलोचना क्यों करें? जब प्रदेशों की जनता ही इन मुद्दों को लेकर गंभीर नहीं है. अगर गंभीर होती तो इसकी झलक देखने को मिलती, लोग सवाल उठाते.
इसका सीधा मतलब है कि लोग भी अपने काम के लिए जाते हुए अपना काम भूल कर सड़क पर बंदर का तमाशा देखना चाहते हैं. उनके लिए जिंदगी का दर्द, जिंदगी के आंसू, अपना खोखला भविष्य और बच्चों के अंधकारमय भविष्य का कोई मतलब नहीं है.
यही राजस्थान के चुनाव में हो रहा है. तीन प्रदेशों के चुनावों का नाम इसलिए नहीं ले रहा हूं, क्योंकि कई सारी चीजें इन चुनावों में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस में समान रूप में दिखाई देती है. पहली बात, इन चुनावों में घोषणा पत्र का नाम बदल कर वचन पत्र/जनघोषणा पत्र (कांग्रेस) और संकल्प पत्र (भारतीय जनता पार्टी) रख दिया गया है.
घोषणा पत्र में वायदे का एक अर्थ छुपा होता था और पार्टियां उन वायदों की वजह से कम से कम आंख नीचे कर जनता और मीडिया से बात करती थी. अब अगर हम उसका दूसरा नाम रखते हैं, चाहे संकल्प पत्र हो या विजन पेपर हो, उससे जनता के प्रति किए गए वायदे की बू नहीं आती. ये सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि हमने खुद को जनता के प्रति अपनी किसी भी जिम्मेदारी को कागज पर लिखने की औपचारिकता से भी दूर कर लिया है. इसे लेकर किसी ने भी न भारतीय जनता पार्टी से सवाल पूछा न कांग्रेस से सवाल पूछा.
सवाल न पूछना हमारी संस्कृति है. हम तो सिर्फ ताली बजा कर तमाशा देखते हैं.
एक सवाल परेशान करता है. उस सवाल का जवाब सिर्फ पाठकों के पास है. सवाल ये है कि हमारे यहां एक कहावत है. जैसा राजा होता है, वैसी प्रजा होती है. यथा राजा तथा प्रजा. अब ये बदल गया है. अब स्थिति यह है कि जैसी प्रजा होती है, वैसा राजा होता है. मैं इसलिए कह रहा हूं कि क्योंकि भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों का नेतृत्व, उस नेतृत्व से बिल्कुल भिन्न दिखाई देता है, जिस नेतृत्व ने आजादी के बाद हमको यहां तक पहुंचाया. उसमें सभी शामिल है.
जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, मुलायम सिंह यादव, जॉर्ज फर्नांडीस आदि, मैं वीपी सिंह, चंद्रशेखर का तो नाम ही नहीं लेता, न देवेगौड़ा जी का नाम लेता हूं. क्योंकि इनके नाम लेने का कोई मतलब इसलिए नहीं है कि अब तो लोग इन्हें नेता ही नहीं मानते. जब प्रधानमंत्रियों की गिनती होती है तो उसमें से वीपी सिंह और चंद्रशेखर का नाम आसानी के साथ भारतीय जनता पार्टी के नेता भी भूल जाते हैं और कांग्रेस भी भूल जाती है.
आज का जो नेतृत्व दिखाई दे रहा है, क्या यह नेतृत्व वैसा ही है जैसे आज के मतदाता हैं. ऐसे मतदाता, जो देश से, दुनिया से, गरीबी से, महंगाई से, बेरोजगारी से, विकास से, विकास की दिशा से, अर्थव्यवस्था से, अर्थव्यवस्था किसके लिये है, किसे इससे फायदा मिल रहा है, नहीं मिल रहा है, जैसे सवालों से बिल्कुल अनजान हैं या अज्ञानी हैं.
जब उन्हें कोई ये सारी बातें बताए तो उन्हें लगता है कि कहां हड़प्पा की खुदाई से निकला हुआ कोई व्यक्ति हमें ज्ञान दे रहा है. अगर ऐसी स्थिति है तो फिर नेता से पहले प्रजा को सुधरना पड़ेगा. लेकिन हमारा लोकतंत्र ऐसा है, जिसमें प्रजा सुधरे या न सुधरे, उसके सामने कोई विकल्प ही नहीं है. उसे उन्हीं दो या तीन में से किसी एक को चुनना हो, जो बदमाश, गुंडे, लफंगे, हत्यारे, बुद्धिहीन हो सकते है. अब तो ये सवाल भी नहीं उठता कि हमारे लोकतंत्र में जो खामियां हैं उसे ठीक करने के लिए क्या किया जाए.
कम से कम पहले इसके लिए आंदोलन होते थे, सेमिनार होते थे, बहसें होती थी. आज तो ये सब भी बंद हो गया है. अब हमने मान लिया है कि देश में जो भी चल रहा है, जैसा भी चल रहा है, यही सत्य है, सही सनातन है और इसी रास्ते पर हमें चलना है. कोई भी आकर हमें समझा देता है कि यह रास्ता गलत है और हम बड़ी आसानी से उसकी बात मान लेते हैं. हम यह सवाल भी नहीं करते है कि रास्ता गलत है, यह आपको कैसे पता? इसलिए सोचने वाली बात सिर्फ यह है कि यथा राजा तथा प्रजा बदल कर जैसी प्रजा वैसा राजा हो गया है.
अगर ऐसा है तो इस देश में लोकतंत्र बहुत दिनों के लिए नहीं है. ये भी हो सकता था कि आजादी के आंदोलन के बाद ये तय हो जाता कि हम तनाशाही लाएंगे. लेकिन उस समय के नेताओं की प्रतिबद्धता लोकतंत्र के प्रति थी. उन्होंने तानाशाही को पसंद नहीं किया. लोकतंत्र को पसंद किया. लेकिन आज के नेता लोकतंत्र को पसंद कर रहे हैं या लोकतंत्र के नाम पर एक नई तानाशाही लाने की प्रक्रिया शुरू कर चुके हैं.
साभार- संतोष भारतीय
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