प्रभात झा: लोकसंग्रह और संघर्ष से बनी शख्सियत

राष्ट्रीय जजमेंट न्यूज

यह नवें दशक के बेहद चमकीले दिन थे। उदारीकरण और भूमंडलीकरण जिंदगी में प्रवेश कर रहे थे। दुनिया और राजनीति तेजी से बदल रहे थी। उन्हीं दिनों मैं छात्र आंदोलनों से होते हुए दुनिया बदलने की तलब से भोपाल में पत्रकारिता की पढ़ाई करने आया था। एक दिन श्री प्रभात झा जी अचानक सामने थे, बताया गया कि वे पत्रकार रहे हैं और भाजपा का मीडिया देखते हैं। इस तरह एक शानदार इंसान, दोस्तबाज,तेज हंसी हंसने वाले, बेहद खुले दिलवाले झा साहब हमारी जिंदगी में आ गए। मेरे जैसे नये-नवेले पत्रकार के लिए यह बड़ी बात थी कि जब उन्होंने कहा कि” तुम स्वदेश में हो, मैं भी स्वदेश में रह चुका हूं।” सच एक पत्रकार और संवाददाता के रूप में ग्वालियर में उन्होंने जो पारी खेली वह आज भी लोगों के जेहन में हैं। एक संवाददाता कैसे जनप्रिय हो सकता है, वे इसके उदाहरण हैं। रचना, सृजन, संघर्ष और लोकसंग्रह से उन्होंने जो महापरिवार बनाया मैं भी उसका एक सदस्य था।उत्साह, ऊर्जा और युवा पत्रकारों को प्रोत्साहित कर दुनिया के सामने ला खड़े करने वाला प्रभात जी का स्वभाव उन्हें खास बनाता था। अब उनका पर्याय नहीं है। वे अपने ढंग के अकेले राजनेता थे,जिनका पत्रकारों, लेखकों, बुद्धिजीवियों से लेकर पार्टी के साधारण कार्यकर्ताओं तक आत्मीय संपर्क था। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े थे। फिर उसकी विचारधारा से जुड़े अखबार में रहे और बाद में भाजपा को समर्पित हो गये। भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष तक उनकी यात्रा उनका एकांगी परिचय है। वे विलक्षण संगठनकर्ता, अप्रतिम वक्ता और इन सबसे बढ़कर बेहद उदार व्यक्ति थे। उनके जीवन में कहीं जड़ता और कट्टरता नहीं थी। वे समावेशी उदार हिंदू मन का ही प्रतीक थे। उनका न होना मेरी व्यक्तिगत क्षति है। वे मेरे संरक्षक, मार्गदर्शक और सलाहकार बने रहे। उनकी प्रेरणा और प्रोत्साहन ने मेरे जैसे न जाने कितने युवाओं को प्रेरित किया।उनके निधन से समाज जीवन में जो रिक्तता बनी है, उसे भर पाना कठिन है। छात्र जीवन से ही उनका मेरे कंधे पर जो हाथ था,वह कभी हटा नहीं। भोपाल, रायपुर, बिलासपुर, मुंबई मेरी पत्रकारीय यात्रा के पड़ाव रहे,प्रभात जी हर जगह मेरे साथ रहे। वे आते और उससे पहले उनका फोन आता। उनमें दुर्लभ गुरूत्वाकर्षण था। उनके पास बैठना और उन्हें सुनने का सुख भी विरल था। किस्सों की वे खान थे। भाजपा की राजनीति और उसकी भावधारा को मैं जितना समझ पाया उसमें श्री प्रभात झा और स्व.लखीराम अग्रवाल का बड़ा योगदान है। भाजपा की अंर्तकथाएं सुनाते फिर हिदायत भी देते, ये छापने के लिए नहीं, तुम्हारी जानकारी और समझ के लिए है।मुझे नहीं पता कि प्रभात जी पत्रकारिता में ही रहते तो क्या होते। किंतु भाजपा में रहकर उन्होंने ‘विचार’ के लिए जगह बनाकर प्रकाशन, लेखन और मीडिया के पक्ष को बहुत मजबूत किया। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की जमीन पर भाजपा के विचार को मीडिया और बौद्धिक वर्ग में उन्होंने लोकस्वीकृति दिलाई। वे ‘कमल संदेश’ जैसे भाजपा के राष्ट्रीय मुखपत्र के वर्षों संपादक रहे। राज्यों में भाजपा की पत्रिकाएं और प्रकाशन ठीक निकलें, ये उनकी चिंता के मुख्य विषय थे। आमतौर पर राजनेता जिन बौद्धिक विषयों को अलक्षित रखते थे, प्रभात जी उन विषयों पर सजग रहते। वे उन कुछ लोगों में थे जिनका हर दल और विचारधारा से जुड़े लोगों से संवाद था। एक बार उन्होंने मुझसे कहा था “अपने कार्यक्रमों में सभी को बुलाएं, तभी आनंद आता है। एक ही विचार के वक्ताओं के बीच एकालाप ही होता है, संवाद संभव नहीं।” उन्होंने मेरी किताब ‘मीडिया नया दौर नयी चुनौतियां’ का लोकार्पण एक भव्य समारोह में किया। जिसमें माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति प्रो.बीके कुठियाला, टीवी पत्रकार और संपादक रविकांत मित्तल भी उपस्थित थे। दिल्ली के अनेक मंचों पर मुझे उनका सान्निध्य मिला। उनका साथ एक ऐसी छाया रहा, जिससे वंचित होकर उसका अहसास अब बहुत गहरा हो गया है। वे हमारे जैसे तमाम युवाओं की जिंदगी में सपने जगाने वाले नायक थे। हम छोटे शहरों, गांवों से आए लोगों को वे बड़ा आसमान दिखाकर उड़ान के लिए छोड़ देते थे।उन्होंने तमाम ऐसी प्रतिभाओं को खोजा, उन्हें संगठन में प्रवक्ता, संपादक , मंत्री, सांसद, विधायक और तमाम सांगठनिक पदों तक पहुंचने में मदद की। एक समय भाजपा के राष्ट्रीय सचिव के नाते वे बहुत ताकतवर थे। अध्यक्ष राजनाथ सिंह (अब रक्षा मंत्री) उन पर बहुत भरोसा करते थे। प्रभात जी ने इस समय का उपयोग युवाओं को जोड़ने में किया। मैं नाम गिनाकर न लेख को बोझिल बनाना चाहता हूं, न उन व्यक्तियों को धर्म संकट में डालना चाहता हूं, जो आज बहुत बड़े हो चुके हैं। भाजपा का आज स्वर्ण युग है, संसाधन, कार्यकर्ता आधार बहुत विस्तृत हो गया है। किंतु प्रभात जी बीजेपी के ‘ओल्ड स्कूल’ में ही बने रहे। जहां पार्टी परिवार की तरह चलती थी और व्यक्ति से व्यक्तिगत संपर्क को महत्व दिया जाता था। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ ही नहीं देश के अनेक राज्यों के कार्यकर्ता, पत्रकार,समाज के विविध क्षेत्रों में सक्रिय लोग उनसे बेहिचक मिलते थे। इस सबके बीच उन्होंने अपने स्वास्थ्य का बिल्कुल ध्यान नहीं रखा। मैंने उन्हें दीनदयाल परिसर के एक छोटे कक्ष में रहते देखा है।परिवार ग्वालियर में ,खुद भोपाल में एकाकी जीवन जीते हुए। यहां भी दरवाजे सबके लिए हर समय खुले थे, जब अध्यक्ष बने तब भी। दिनचर्या पर उनका नियंत्रण नहीं था, क्योंकि पत्रकारिता में भी कोई दिनचर्या नहीं होती। मध्यप्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने जिस तरह तूफानी प्रवास किया, उसने कार्यकर्ताओं को भले खुश किया। राजपुत्रों को उनकी सक्रियता अच्छी नहीं लगी। वे षड्यंत्र के शिकार तो हुए ही, अपना स्वास्थ्य और बिगाड़ बैठे। उनका पिंड ‘पत्रकार’ का था, किंतु वे ‘जननेता’ दिखना चाहते थे। इससे उन्होंने खुद का तो नुकसान किया ही, दल में भी विरोधी खड़े किये। बावजूद इसके वे मैदान छोड़कर भागने वालों में नहीं थे। डटे रहे और अखबारों में अपनी टिप्पणियों से रौशनी बिखेरते रहे। आज जब परिवार जैसी पार्टी को कंपनी की तरह चलाने की कोशिशें हो रही हैं, तब प्रभात झा जैसे व्यक्ति की याद बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है।

Comments are closed.

This website uses cookies to improve your experience. We'll assume you're ok with this, but you can opt-out if you wish. Accept Read More