जम्मू कश्मीर में कैसे हारकर भी ‘जीत’ गई बीजेपी? मोदी, राहुल, अब्दुल्ला और मुफ्ती के लिए क्या मायने रखते हैं ये नतीजे

राष्ट्रीय जजमेंट

जम्मू कश्मीर में आर्टिकल 370 के खात्मे के बाद पहली बार चुनाव हुए। चुनाव में कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस को अच्छी सफलता हासिल हुई। वहीं बीजेपी ने जम्मू रीजन में बेहतरीन प्रदर्शन किया है। नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी, एआईपी के कैंपेन में कश्मीर को लेकर विभिन्न किस्म के वादे और दावे किए गए। जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक परिदृश्य अब्दुल्ला और मुफ्ती के राजवंशों के ईर्द गिर्द ही घूमता रहा है। इसमें भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियां भी प्रभाव डालने की होड़ में समय समय पर नजर आई हैं। चुनाव तीन चरण में चुनाव हुए थे और 64 प्रतिशत मतदान हुए थे। कश्मीर घाटी और जम्मू क्षेत्र की 90 सीटों में से 24 पर 18 सितंबर को पहले चरण में, 26 पर 25 सितंबर को दूसरे चरण में तथा 40 पर एक अक्टूबर को तीसरे चरण में मतदान हुआ था। प्रधान मंत्री मोदी के लिए, जम्मू-कश्मीर चुनाव एक चुनौती और एक अवसर दोनों था। भाजपा सरकार द्वारा 2019 में अनुच्छेद 370 को निरस्त करना एक महत्वपूर्ण क्षण था जिसने राज्य की विशेष स्थिति को बदल दिया और इसे दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया। बीजेपी अपने इस कदम का जिक्र राष्ट्रीय राजनीति में एक साहसिक निर्णय के रूप में करती है। जम्मू-कश्मीर के लोग भाजपा के विकास और सुरक्षा की बातों पर उस हद तक मुहर लगाते नजर नहीं आए या फिर कहे कि स्थानीय मुद्दे राष्ट्रीय विमर्श पर हावी हो गए। कश्मीर के परिणाम नेशनल-इंटरनेशनल स्तर पर आलोचकों को बढ़ावा दे सकता है, जो तर्क देते हैं कि इस कदम से वादे के मुताबिक जम्मू-कश्मीर के लोगों को कोई फायदा नहीं हुआ है।कांग्रेस के लिए और विशेष रूप से राहुल गांधी के लिए चुनाव पार्टी की खोई हुई जमीन वापस पाने की क्षमता के प्रमुख संकेतक के रूप में काम करेंगे। कांग्रेस की परंपरागत रूप से जम्मू-कश्मीर में पकड़ रही है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में उसने अपनी उपस्थिति खो दी है। गांधी स्थानीय भावनाओं के साथ जुड़कर अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के खिलाफ मुखर रहे हैं। कांग्रेस के लिए एक अच्छा परिणाम राहुल गांधी को राष्ट्रीय स्तर पर अपने नेतृत्व के लिए मामला पेश करने में मदद कर सकता है। कांग्रेस के लिए, यह चुनाव सिर्फ सीटें हासिल करने के बारे में नहीं है बल्कि जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र में प्रासंगिकता बनाए रखने के लिहाज से भी अहम थी। अब्दुल्ला परिवार और नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) जम्मू-कश्मीर चुनाव उनके क्षेत्रीय प्रभाव का परीक्षण रहा। फारूक अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली पार्टी दशकों से जम्मू-कश्मीर की राजनीति में की प्लेयर रही है। उन्होंने अनुच्छेद 370 पर भाजपा के रुख का विरोध किया और जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा बहाल करने का आह्वान किया। एनसी का शानदार प्रदर्शन जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक परिदृश्य में अब्दुल्ला की मौजूदगी को फिर से पुख्ता किया। फारूक अब्दुल्ला भाजपा का मुकाबला करने के लिए क्षेत्रीय दलों के बीच एक संयुक्त मोर्चा बनाने के बारे में मुखर रहे हैं और एक मजबूत गठबंधन बना। जिसका असर इस चुनाव में दिखा। मोदी सरकार ने जम्मू कश्मीर को अलग थलग नहीं पड़ने देने का वादा किया था। सरकार बहुत पहले से कहती आ रही है कि केंद्र शासित प्रदेश में जल्द ही चुनाव होंगे। सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुसार सरकार ने बिना किसी किंतु परंतु के अपना वादा पूरा किया। फौरी तौर पर देखें तो जम्मू कश्मीर में सरकार नहीं बना पाई लेकिन इसे बड़े विजन के तौर पर देखा जा सकता है। खासकर, राष्ट्र के निर्माण के रूप में कश्मीर में सफलतापूर्वक चुनाव करवाना दुनिया भर को संदेश है कि भारत ने कश्मीर पर अवैध कब्जा नहीं किया हुआ है। वहां के लोगों को अपनी पसंद की सरकार चुनने का पूरा अधिकार है। अभी तक के जम्मू कश्मीर के चुनाव आतंक के साये में होते रहे हैं। दहशत के डर से बहुत से लोग वोट करने की नहीं निकलते थे। कई बार तो पूरी आबादी का 10 प्रतिशत भी वोट नहीं देखने को मिलता था। तमाम प्रतिबंधित संगठनों के ऐसे लोग जो पहले आतंकवादी कार्यवाही में लिप्त रहे हैं उन्हेंं भी लोकतंत्र के इस उत्सव में भाग लेने का मौका मिला।

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