यूँ ही नहीं छलका नेता जी का दर्द…….

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भारतीय राजनिति के चाणक्य कहे जाने वाले मुलायम सिंह यादव भारत के सबसे बड़े राजनितिक घराने के मुखिया जब अखाड़ा छोड़ राजनीति के दंगल में दांवपेच आजमाने उतरे मुलायम उम्र के इस पड़ाव में भी सक्रिय राजनीति में बने हुए हैं। उन्होंने एक लंबी सियासी पारी खेली है।
अब जब राजनीतिक मशाल, एक हाथ से दूसरे में देने का वक्त है तो वक्त खराब हो चला है। पिछले दो सालों से, बात-बेबात बेटे अखिलेश को लेकर उनका दर्द छलक ही पड़ता है। मुलायम, सरेआम बेटे के खिलाफ गुस्सा भी जता देते हैं, विरोध भी दर्ज कर देते हैं और बेटे के साथ खड़े भी दिखते हैं।
अखाड़े की मिट्टी से समाजवादी राजनीति के शीर्ष पर पहुंचे मुलायम, राजनीति के हर उस दांव-पेच में माहिर हैं जो मंझे सियासतदान को भी उलझाकर रख दें। उनके बयान उनकी राजनीति की दृष्टि तय करते हैं। साल 2016 में बेटे अखिलेश के हाथों में समाजवादी पार्टी की कमान सौंपी, कार्यकर्ताओं के सामने नाराजगी जताई, भाई के प्रति अथाह अनुराग दिखाया और बेचारगी झलक गई-
जब गुस्सा शांत हुआ तो वापस बेटे के समर्थन में आ गए। मुलायम की इस मुलायमियत से भाई शिवपाल यादव भी चारों खाने चित हो गए। उन्होंने कभी नेता जी की तारीफ की, कभी उपेक्षित करने का आरोप लगाया और आखिर में खुद ही नई पार्टी बना ली।

2019 के लोकसभा चुनाव को लेकर जब बेटे ने बुआ के साथ गठबंधन किया तो एक बार फिर मुलायम का दर्द छलक उठा। यहां तक कह डाला- बिना लड़े ही अखिलेश ने आधी सीटें हरा दीं उनका दर्द भी जायज है उत्तर प्रदेश की अस्सी सीटों में से सपा ३७ पर ही लड़ेगी जिनमे सपा के हिस्से की वो पांच छः  सीटें भी हैं जो सपा कभी नहीं जीत पायी है जिनमे लखनऊ,बनारस,गोरखपुर, गाज़ियाबाद, बरेली प्रमुख हैं।

अपने पुराने दिनों को याद करते हुए मुलायम, अखिलेश पर जमकर बरसे। मुलायम यह कहने में भी नहीं हिचके- ”पार्टी को अपने ही लोग खत्म कर रहे हैं।” ये अपने लोग कौन? क्या मुलायम बेटे अखिलेश पर पार्टी को तोड़ने और खत्म करने का आरोप लगा रहे थे। या भाई शिवपाल और रामगोपाल पर मुलायम एक ही साथ दो तरह की बातें करने में माहिर हैं।

उन्होंने कार्यकर्ताओं से जहां कहा कि सूबे में उनकी लड़ाई भारतीय जनता पार्टी से है, वहीं चुनाव की बेहतर तैयारी के मामले में भाजपा की तारीफ भी कर डाली। दरअसल,इस बार मुलायम का दर्द यह था कि बसपा से गठबंधन करते वक्त बेटे ने उनकी राय नहीं ली।
हालांकि, यह पहली बार नहीं है जब मुलायम सार्वजनिक तौर पर अपना दर्द बयां कर रहे हैं। चार साल पहले से ही मुलायम अखिलेश को लताड़ रहे हैं। उन पर बेमौसम बरसात की तरह बरस पड़ते हैं। पहले भी कई बार सार्वजनिक तौर पर अखिलेश को झिड़का है। मुलायम ने इस बार सीटों के बंटवारे के बाद कार्यकर्ताओं से कहा- किसी जमाने में अपने दम पर अकेले मजबूत पार्टी बनायीं थी। अकेले तीन बार सरकार बनाई और तीनों बार हम मुख्यमंत्री रहे। हम राजनीति नहीं सच्ची बात कह रहे हैं
मुलायम बोल उठे मुझसे बिना पूछे मायावती से गठबंधन कर लिया। आधी सीटें देने का आधार क्या? इसी के साथ ही मुलायम बीते दिनों में चले गए और अपने जमाने को याद कर डाला। यूपी की राजनीति में मुलायम सिंह यादव और चौ चरण सिंह की गिनती प्रदेश के दो बेहद धुंरधर नेताओं में की जाती रही है परन्तु बदलते वक्त और बढती उम्र ने दोनों नेताओं को सक्रिय राजनीति की राह में कुछ कमजोर किया है।
यही कारण है कि आज जब मुलायम सिंह यादव के पुत्र अखिलेश यादव और चौ अजित सिंह के पुत्र जयन्त चौधरी के बीच सीटों का तालमेल हुआ तो अतीत के पन्ने फडफडाने लगे। दल भी वही थे, दिल भी वही थे पर इन दोनों नेताओं का स्थान उनके पुत्रों ने लेकर बदलते बदलते वक्त की बात कह दी।
यूपी की राजनीति के दो धुंरधरों मुलायम सिंह यादव और चौ अजित सिंह के बीच कभी दोस्ती तो कभी दुश्मनी का रिश्ता रहा है। कई बार यह दोनों नेता एक मचं पर आए और कई बार दोनो ने अपनी राहे भी अलग अलग चुनी। लेकिन एक बार फिर अखिलेश ने राष्ट्रिय लोक दल से गठबंधन करके पिता की विरासत को आगे बढ़ाया है।
एक वक्त था जब सपा में तीन गुट सक्रिय थे। एक धड़े का नेतृत्व मुलायम के हाथों में तो दूसरे गुट को अखिलेश चला रहे थे। तीसरा गुट चाचा शिवपाल का था। यह वह दौर था जब अखिलेश युवाओं का समाजवाद लाने की कोशिश में जुटे थे और पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को खफा करते जा रहे थे। गायत्री प्रजापति को साइड किया तब भी पिता भड़के। अमर सिंह के खिलाफ खबर प्लांट करने का आरोप लगाया तो मुलायम का दिल पसीज गया। पुराने दोस्त के साथ खड़े हो गए।

चार साल पहले मैनपुरी में मुलायम ने अखिलेश को उस वक्त डांटा, जब अखिलेश के कंधों पर सूबे की जिम्मेदारी थी। इसके बाद लखनऊ में भी डांट लगाई। यह वह वक्त था जब मुलायम बेमौसम बारिश को लेकर बेटे की सरकार की तरफ से पहुंचाई मदद का जिक्र कर रहे थे। मुलायम भाषण दे रहे थे और अखिलेश मंच पर बैठकर  लोगों से बातचीत कर रहे थे। मुलायम ने सरेआम मंच से अखिलेश को डांटा। उन्होंने पहले कहा मुख्यमंत्री जी बात करने में लगे हैं और फिर अखिलेश को जोरों की डांट लगाते हुए कह डाला- आ गया है बात करने….

“2016 में मुलायम ने कह डाला-हम खड़े हो जाएंगे तो सरकार की ऐसी तैसी हो जाएगी,

मुलायम सिंह यादव ने इटावा से ग्रेजुएशन किया और राजनीति शास्त्र में स्नातकोत्तर की पढ़ाई के लिए आगरा पहुंचे। छात्र राजनीति में सक्रिय हुए। राममनोहर लोहिया की समाजवादी विचारधारा से प्रभावित हुए और पहली बार उस वक्त लोहिया का सानिध्य उन्हें मिला जब 1966 में लोहिया इटावा पहुंचे थे। 1967 में लोहिया की पार्टी से चुनाव लड़ा और जीत का ताज पहना। लोहिया की मौत के बाद मुलायम ने चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारतीय क्रांति दल का दामन लिया। आपातकाल में मीसा में गिरफ्तार हुए और जेल हो गई। 1979 में चौधरी चरणसिंह ने जब लोकदल की स्थापना की तो मुलायम उधर हो लिए। 1989 का दौर आया तो जनता पार्टी ज्वॉइन कर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने।
4 अक्तूबर 1992 को मुलायम ने समाजवादी पार्टी की स्थापना की। तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे मुलायम 1967 में पहली बार विधायक बने। कांग्रेस विरोध के दौर में 1977 में मंत्री बने और इसके बाद अयोध्या मुद्दे ने मुलायम को राजनीति के शिखर पर पहुंचाया दिया। यह 1990 का दौर था और भारत की राजनीतिक लड़ाई मंदिर-मस्जिद के फेर में आ गई थी। मुलायम उस वक्त सूबे के मुख्यमंत्री थे और बाबरी मस्जिद के लिए कार सेवकों पर गोली चलाने का आदेश दे दिया। यही वह दौर था जब भाजपा के हिंदू शिखर पुरुष आडवाणी, रथ लेकर निकले थे। सोमनाथ से अयोध्या तक माहौल को हिंदुत्वादी करने का दौर था। सत्ता में वीपी सिंह बैठे थे और आडवाणी की रथ यात्रा उनके माथे पर बल खींच रही थी। आडवाणी को रोकने का भारी दबाव था।

मुख्यधारा की सियासत से तकरीबन दूर जा रहे मुलायम सिंह के लिए राजनीतिक अनुभवों से गुजरी एक भरी-पूरी दुनिया है। जिसमें सबसे बड़े सूबे यूपी के बार सीएम होने से लेकर देश के रक्षा मंत्रालय को संभालने का हिसाब-किताब है। 17वीं लोकसभा के चुनाव में मुलायम की सियासत बयानों के इर्द-गिर्द सिमटती दिखाई दे रही है। बयानजिनमें प्रधानमंत्री की तारीफ भी शामिल है। अगर किन्हीं वजहों से सपा-बसपा का गठबंधन यूपी में संभावित कमाल नहीं कर पाता तो अखिलेश को मुलायम के पास वापस लौटना ही होगा। कुछ सबक फिर हासिल करने होंगे। जमीनी तजुर्बे को भीतर उतारना होगा। 

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