Devendranath Tagore ने हमेशा मानव एकता का दिया संदेश, शान्ति निकेतन को स्थापित करके किया ज्ञान का प्रसार

राष्ट्रीय जजमेंट

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के पिता ‘देवेन्द्रनाथ टैगोर‘ या देवेन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म 15 मई, 1817 में पश्चिम बंगाल के कलकत्ता में हुआ था। उनके पिता का नाम द्वारकानाथ ठाकुर था, जो सुप्रसिद्ध विद्वान् और धार्मिक नेता थे। अपने बढ़ चढ़कर दान करने के कारण ‘प्रिंस‘ की उपाधि दी गई थी। देवेंद्रनाथ टैगोर के पुत्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर साहित्य में एशिया के पहले नोबेल पुरस्कार के थे। वे साल 1842 में ब्रह्म समाज में शामिल हो गए थे, जिसकी स्थापना 1828 में राजा राममोहन राय ने की थी। इससे पहले उन्होंने तत्वबोधिनी सभा का नेतृत्व किया, जिसकी स्थापना 1839 में हुई थी।

जानिए कैसे मिली ‘महर्षि’ की उपाधि

वे चाहते थे कि देशवासी, पाश्चात्य संस्कृति की अच्छाइयों को ग्रहण करके उन्हें भारतीय परम्परा, संस्कृति और धर्म में समाहित करें। देवेंद्रनाथ टैगोर हिन्दू धर्म को नष्ट करने के नहीं, उसमें सुधार करने के पक्षपाती थे। वे समाज सुधार में ‘धीरे चलो’ की नीति पसन्द करते थे। इसी कारण उनका केशवचन्द्र सेन तथा उग्र समाज सुधार के पक्षपाती ब्राह्मासमाजियों, दोनों से ही मतभेद हो गया। केशवचन्द्र सेन ने अपनी नयी संस्था ‘नवविधान’ आरम्भ की। उधर उग्र समाज सुधार के पक्षपाती ब्रह्मा समाजियों ने आगे चलकर अपनी अलग अलग संस्था ‘साधारण ब्रह्म समाज’ की स्थापना की। देवेन्द्रनाथ जी के उच्च चरित्र तथा आध्यात्मिक ज्ञान के कारण सभी देशवासी उनके प्रति श्रद्धा भाव रखते थे और उन्हें ‘महर्षि’ सम्बोधित करते थे।

धर्म व शिक्षा का किया प्रसार

देवेन्द्रनाथ टैगोर देश सुधार के साथ-साथ अन्य कार्यों में भी काफी रुचि लेते थे। साल 1851 में स्थापित होने वाले ‘ब्रिटिश इंडियन एसोसियेशन‘ का उन्हें सबसे पहला सेक्रेटरी नियुक्त किया गया था। इस एसोसियेशन का उद्देश्य संवैधानिक आंदोलन के द्वारा देश के प्रशासन में देशवासियों को उचित हिस्सा दिलाना था।

एक बड़े वर्ग का किया नेतृत्व

उन्होंने बड़ी ही ईमानदारी के साथ किया (जो कि उस समय असाधारण बात थी) और अपनी विद्वता, शालीनता, श्रेष्ठ चरित्र तथा सांस्कृतिक क्रियाकलापों में योगदान के द्वारा उन्होंने टैगोर परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा को और भी ऊपर उठाया। वे ब्रह्म समाज के प्रमुख सदस्य थे, जिसका 1843 ई. से उन्होंने बड़ी सफलता के साथ नेतृत्व किया। 1843 ई. में उन्होंने ‘तत्वबोधिनी पत्रिका’ प्रकाशित की, जिसके माध्यम से उन्होंने देशवासियों को गम्भीर चिन्तन हृदयगत भावों के प्रकाशन के लिए प्रेरित किया। इस पत्रिका ने मातृभाषा के विकास तथा विज्ञान एवं धर्मशास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता पर बल दिया और साथ ही तत्कालीन प्रचलित सामाजिक अंधविश्वासों व कुरीतियों का विरोध किया तथा ईसाई मिशनरियों द्वारा किये जाने वाले धर्मपरिवर्तन के विरुद्ध कठोर संघर्ष छोड़ दिया।

शान्ति निकेतन की स्थापना

देवेन्द्रनाथ टैगोर शिक्षा प्रसार में भी अधिक रुचि रखते थे। उन्होंने बंगाल के विविध भागों में शिक्षा संस्थाएं खोलने में मदद की। साल 1863 में देवेंद्रनाथ ने बोलपुर में एकांतवास के लिए 20 बीघा जमीन खरीदी और वहां ‘शान्ति निकेतन‘ की नींव रखी। साल 1886 ई. में उसे एक ट्रस्ट को सौंप दिया गया। इसी स्थान पर बाद में उनके पुत्र रवीन्द्रनाथ टैगोर ने विश्वभारती की स्थापना की थी। 19 जनवरी 1905 को उनका देहांत हो गया था।

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