इन दिनों राजनीति में सिनेमा को बतौर टूल्स किया जा रहा है इस्तेमाल

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डॉ० मानवेन्द्र सिंह

सिनेमा कला के स्तर पर समाज को गहरे स्तर पर प्रभावित करता है। शायद यही वजह है, इन दिनों सियासत में सिनेमा को बतौर टूल्स इस्तेमाल किया जा रहा है। राष्ट्रवाद के नाम पर देश में एक अलग ही गर्म हवा बह रही है। एक व्यक्ति विशेष को सिनेमा के ज़रिए राष्ट्रपुरुष साबित करने की मुहिम चलायी जा रही है।
2014 से अब तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कार्यकाल सिनेमा के इतिहास में प्रोपगैंडा फ़िल्मों के लिए भी जाना जाएगा। जैसे-जैसे चुनाव क़रीब आ रहे हैं वैसे-वैसे उन्हें महान साबित करने की क़वायद तेज़ होती जा रही है।
एक तरफ़ सरकार के समर्थन में फ़िल्में बन रही हैं तो दूसरी तरफ़ विपक्ष को ग़लत साबित करने के लिए भी फ़िल्में बन रही हैं। पिछले 5 सालों में नरेंद्र मोदी के जीवन पर निर्मित फ़िल्मों, डॉक्यूमेंट्री और वेबसीरीज की ऋंखला काफ़ी लंबी है।
2016 में विवेक अग्निहोत्री की फ़िल्म ‘बुद्धा इन ट्रैफिक जाम’ आयी। इस फ़िल्म का निर्माण 12 प्रोड्यूसर्स सुरेश चुकापल्ली, विवेक अग्निहोत्री, शरद पटेल, श्रेयांशी पटेल, प्रणय चौकसी, रवि अग्निहोत्री (सुपरवाइजिंग प्रोड्यूसर), विक्रम गुप्ता (एसोसिएट प्रोड्यूसर), ड्रीम क्यूब (कंपनी), संदीप गोयल, अभिषेक मोहंता, पृतिका इदनानी और रितेश पटेल ने मिलकर किया।
यह फ़िल्म क्रोनी कैपिटलिज्म यानी आवारा पूंजीवाद का सबसे बढ़िया उदाहरण है। इन बारह लोगों में अधिकतर एनआरआई और गुजराती लोग हैं। अब इन लोगों ने यह फ़िल्म समाजसेवा के लिए बनायी, या देश के विकास के लिए या सरकार से फ़ायदे के लिए, यह विमर्श का विषय है।
2017 में याडु विजयकृष्णन ने मलयालम में ‘21 मंथ्स ऑफ हेलl’ नाम की डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म बनायी। यह फ़िल्म इमरजेंसी पर आधारित है। इस फ़िल्म को सेंसर बोर्ड के रीजनल ऑफ़िस केरल ने सर्टिफ़िकेट देने से साफ़ मना कर दिया। सेंसर बोर्ड ने फ़िल्म में बिना किसी प्रमाण के हिंसा दिखाए जाने पर आपत्ति जतायी बोर्ड ने कहा कि
आपातकाल के दौरान पुलिस द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली यातना विधियों का कोई सबूत नहीं है. इतिहास पर आधारित फ़िल्मों में यह छूट नहीं दी जा सकती. याडु विजय कृष्णन ने दिल्ली में फ़िल्म की प्राइवेट स्क्रीनिंग में केंद्रीय राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे को फ़िल्म दिखायी। जो आपातकाल के दौरान यातना का शिकार हुए थे. फिल्म को बीजेपी की ओर से सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली।
2017 में फिल्मकार मधुर भंडारकर ने ‘इंदू सरकार’ नाम से फ़िल्म बनाई. ‘इंदू सरकार’ इमरजेंसी पर आधारित है। इसके प्रोड्यूसर भरत शाह और मधुर भंडारकर हैं. दोनों ने मिलकर आरएसएस के समर्थन में यह प्रोपगैंडा फ़िल्म बनायी।
इसी तरह कनाडा की नागरिकता ले चुके एनआरआई अभिनेता अक्षय कुमार ने मोदी के कार्यकाल के दौरान देशभक्ति के फ़ॉर्मूले का जमकर दोहन किया। उन्होंने मोदी की लोकप्रिय नीतियों के ऊपर मसाला फ़िल्में बनाकर पैसा ही नहीं बनाया बल्कि पहली बार नेशनल अवार्ड भी जीता।
2018 में ‘चलो जीते हैं’ नाम की एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म आयी. इसके प्रोड्यूसर आनंद एल राय और महावीर जैन हैं।
2019 में विजय रत्नाकर गुट्टे की फ़िल्म ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ रिलीज हुई। इसके प्रोड्यूसर सुनील वोहरा धवल गाड़ा हैं। इसमें पूर्व पीएम मनमोहन सिंह की छवि को धूमिल करने का फूहड़ प्रयास किया गया है. 2019 में ‘मेरे प्यारे प्राइम मिनिस्टर’ फ़िल्म शौचालय अभियान पर बनी है।
जिस पर अभी हाल ही में विवाद हुआ है। इसके रायटर ने फ़िल्म के डायरेक्टर पर आरोप लगाते हुए बताया कि फ़िल्म की मूल कहानी कुछ और थी. लेकिन डायरेक्टर ने कहानी को बदलकर मसाला फ़िल्म बना दिया।
चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद प्रधानमंत्री मोदी पर बन रही फ़िल्मों में इन दिनों सबसे ज़्यादा चर्चा है, विवेक ऑबराय अभिनीत फ़िल्म ‘पीएम नरेंद्र मोदी’ की. उमंग कुमार फ़िल्म के डायरेक्टर हैं। यह फ़िल्म 5 अप्रैल को रिलीज हो रही है. फ़िल्म के प्रोड्यूसर सुरेश ओबरॉय, संदीप सिंह, आनंद पंडित और अर्चना मनीष हैं।
फिल्म निर्माता उमेश शुक्ला और आशीष वाघ नरेंद्र मोदी पर ‘मोदी’ नामक वेब सीरीज़ बना रहे हैं। यह इरोज नाउ पर अप्रैल में रिलीज़ होगी। यह वेब सीरीज़ 10 भाग में होगी। इस बॉयोपिक का निर्माण इरोज नाऊ और बेंचमार्क पिक्चर्स मिलकर कर रहे हैं। वेब सीरीज़ का फ़र्स्ट लुक पोस्टर जारी हो गया है।
महावीर जैन ‘चलो जीते हैं’ के बाद इस डॉक्यूमेंट्री का दूसरा भाग ‘बैरागी मन’ लेकर आ रहे हैं। यह अप्रैल में रिलीज होगी. इसके बाद डॉक्यूमेंट्री का तीसरा पार्ट भी आएगा. पहला भाग बचपन, दूसरा जवानी और तीसरा पॉलिटिक्स में आने के बाद का है।
जी मीडिया समूह के मालिक सुभाष चंद्रा जो भाजपा से राज्यसभा सांसद हैं। उनकी कंपनी ज़ी5 भी मोदी की बॉयोपिक पर एक वेब सीरीज बना रहा है. जो चुनाव के दौरान रिलीज होगी।
विवेक अग्निहोत्री की फ़िल्म ‘द ताशकंद फाइल्स’ 12 अप्रैल को रिलीज हो रही है। फ़िल्म के प्रोड्यूसर प्रणय चौकसी, शरद पटेल, विवेक अग्निहोत्री और अनूया रितेश कूदेचा हैं। यह फ़िल्म पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की संदिग्ध मौत पर आधारित है. फ़िल्म का डिस्ट्रीब्यूशन जी स्टूडीओज़ कंपनी कर रही है।
ग़ौरतलब है कि ये सारी प्रोपगैंडा फ़िल्में बनाने वाले ज़्यादातर प्रोड्यूसर, डायरेक्टर और एक्टर घोषित तौर पर भाजपा समर्थक हैं। इन फ़िल्मों में इतिहास को बड़े पैमाने पर तोड़ने-मरोड़ने की कोशिश है। अब सवाल यह उठता है कि इन फ़िल्मों के निर्माण के लिए फंडिंग कहां से जुटायी जा रही है? कहीं यह फ़िल्में नरेंद्र मोदी की ब्लैक मनी की मुख़ालफत करने की मुहिम की धज्जियां उड़ाते हुए तो नहीं बनायी जा रही हैं?
वैसे प्रोपगैंडा फ़िल्मों का इतिहास काफ़ी पुराना है. 1930 में प्रथम विश्व युद्ध के समय एडोल्फ हिटलर और उनके प्रचार मंत्री जोसेफ गोएबल्स ने जनता को नारों के माध्यम से प्रेरित करने का प्रयास किया था। ताकि नाजियों की नीतियां व उनके उद्देश्य सीधे लोगों की प्रवृत्ति और भावनाओं को प्रभावित कर सकें।
नाजियों ने भारी मात्रा में प्रचार उपकरण के रूप में प्रोपगैंडा फ़िल्मों को महत्व दिया। एडोल्फ हिटलर ने बाक़ायदा इसके लिए एक फिल्म विभाग की स्थापना की थी. ताकि उसके हर जायज़-नाजायज़ तरीक़ों को ये प्रोपगैंडा फ़िल्में सही ठहरा सकें।
प्रोपगैंडा फ़िल्मों में किसी न किसी तरह का प्रचार होता है। इन प्रचार फिल्मों को कई तरीकों से बनाया जा सकता है लेकिन सबसे अधिक कारगर वृत्तचित्र-शैली (डॉक्यूमेंट्री) है। इन फ़िल्मों की प्रस्तुति का माध्यम किसी घटना या बात को तोड़-मरोड़ कर काल्पनिक पटकथाओं के जरिये प्रदर्शन करना है।
जो किसी विशिष्ट राजनीतिक बिंदु के तहत दर्शक को समझाने या दर्शकों की राय या व्यवहार को प्रभावित करने के लिए बनाई जाती हैं। प्रोपगैंडा फिल्में कला या रचनात्मक कंटेंट के नाम पर समाज में भ्रामक चीज़ें फैलाने का काम करती हैं।
भारतीय संदर्भ में अगर हम इतिहास की गुल्लक खंगालें तो सियासत और सिनेमा का रिश्ता काफ़ी पुराना है. शास्त्रीजी की कैबिनेट में इंदिरा गांधी को सूचना और प्रसारण मंत्री बनाया गया। मंत्री रहते हुए इंदिरा गांधी ने सिनेमा और संस्कृति के विकास पर काफ़ी काम किया. उनके कार्यकाल में ही फ़िल्म फ़ायनेंस कारपोरेशन का गठन हुआ. फिर जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो 1975 में इसे बदलकर राष्ट्रीय फ़िल्म संग्रहालय की स्थापना हुई. कला, संस्कृति और सिनेमा की पोषक होने के बावजूद इंदिरा गांधी ने फ़िल्मों पर पाबंदियां लगायीं।
1975 में इंदिरा गांधी ने जब देश में इमरजेंसी लागू किया तभी गुलज़ार ने कमलेश्वर के उपन्यास ‘काली आंधी’ पर ‘आंधी’ (1975) नाम से फ़िल्म बनायी. कथित तौर पर फ़िल्म की प्रमुख पात्र का किरदार इंदिरा गांधी के ऊपर केंद्रित था। इसलिए इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के समय इसे प्रोपगैंडा फिल्म मानकर इसके प्रसारण पर बैन लगा दिया था।
उसी दौरान अमृत नाहटा की फ़िल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ (1977) रिलीज हुई। अमृत नाहटा बाड़मेर से कांग्रेस के लोकसभा सांसद थे। उन्होंने इमरजेंसी के विरोध में कांग्रेस से इस्तीफ़ा देकर ‘किस्सा कुर्सी का’ फ़िल्म बनायी। भारत सरकार ने इस फ़िल्म को भी बैन कर दिया लेकिन सियासत के लिए सिनेमा का इस्तेमाल करने वाले मोदी भक्त इस मामले में चार क़दम और आगे बढ़ गए हैं।
देश में लोकसभा चुनाव की आचार संहिता लागू हो चुकी है. भारत सरकार की ओर से निर्देश जारी कर दिया गया है कि सोशल मीडिया पर किसी भी तरह की राजनैतिक प्रचार सामग्री या किसी पार्टी या नेता के समर्थन में आप कुछ नहीं लिख सकते। अगर आपने कुछ लिखा तो भारतीय दंड संहिता के अनुसार पुलिस आपको सीपीसी की धारा 44-58 के तहत बिना किसी वारंट के गिरफ़्तार कर सकती है।
चुनाव आचार संहिता लागू होने के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी के ऊपर भारी मात्रा में फ़िल्में, डॉक्यूमेंट्री फिल्में और वेब सीरीज चुनाव के दौरान ही रिलीज हो रहीं हैं। क्या चुनाव आयोग इसका संज्ञान लेगा या सिर्फ़ जनता के लिए ही सीपीसी की धाराएं होती हैं?

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