P.M. नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता घटी, 70 के बजाय 44 फीसदी ही बची

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बिहार विधानसभा चुनाव
अप्रैल में एक सर्वे हुआ था जिसमें बताया गया था कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता 70 प्रतिशत थी। ताजा सर्वे में यह 44 फीसदी बताई जा रही है लेकिन विपक्ष इस गिरते ग्राफ पर फोकस नहीं कर पा रहा है। नीतीश कुमार ने चिराग पासवान को गंभीरता से लेने से साफ मना कर दिया था लेकिन इस बीच उनके पिता राम विलास पासवान की मृत्यु के कारण उनके पक्ष में सहानुभूति का माहौल भी है। बिहार की राजनीति में कोई भी पार्टी या गठबंधन 45 फीसदी से ज़्यादा वोट नहीं पाता।
बिहार विधानसभा चुनाव के लिए अभियान जोरों पर है। तरह-तरह की संभावनाओं पर बात की जा रही है लेकिन तस्वीर धुंधली है। हालांकि कुछ बातें बिलकुल साफ हैं। एक तो यह कि सत्ताधारी गठबन्धन, एनडीए का चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ा जा रहा है। एनडीए के एक सहयोगी दल, लोकजनशक्ति पार्टी का एजेंडा ही नीतीश कुमार को सत्ता से बाहर करना है। वह बीजेपी के समर्थन में है और नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने के खिलाफ है।
बिहार में मौजूद ज़्यादातर राजनीतिक लोग मानते हैं कि चिराग पासवान को बीजेपी का आशीर्वाद प्राप्त है। उनकी सभाओं में नरेंद्र मोदी जिंदाबाद के नारे लग रहे हैं। उन्होंने अधिकतर उन्हीं सीटों से अपने उम्मीदवार उतारने का फैसला किया है जो नीतीश कुमार की पार्टी जे डी (यू) के हिस्से में आई हैं। उनके उम्मीदवारों की लिस्ट में भी बीजेपी छोड़कर आए लोगों की बहुतायत है। इन उम्मीदवारों के कार्यकर्ताओं से बात करके पता चलता है कि उनकी नाराजगी केंद्रीय नेतृत्व से नहीं है। वे मुकामी बीजेपी नेताओं, सुशील मोदी, मंगल पाण्डेय, राधा मोहन सिंह आदि से नाराज हैं और चिराग पासवान के साथ हैं।
चिराग पासवान के लोग बीजेपी के हिस्से वाली सीटों पर खुले आम बीजेपी के लिए काम कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि बिहार में इस चुनाव के बाद जेडीयू को बीजेपी से छोटी पार्टी की भूमिका निभाने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। नीतीश कुमार को मालूम है कि इस बार राज्य में उनसे नाराजगी बहुत ज्यादा है लेकिन उन्होंने बीजेपी आलाकमान को समझाने में सफलता पा ली है कि नाम के लिए ही सही उनकी पार्टी को बंटवारे में ज्यादा सीटें मिलनी चाहिए। इसके बावजूद चुनाव अभियान के जोर पकड़ने के साथ जो स्थिति बन रही है उसमें सा$फ समझ में आ रहा है कि बिहार का चुनाव बीजेपी बनाम आरजेडी हो चुका है। कांग्रेस, जेडीयू, चिराग पासवान की पार्टी, असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी, उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी, जीतनराम मांझी की पार्टी इन्हीं दो पार्टियों में किसी न किसी को प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन दे रही है।
बिहार में 2015 के विधानसभा चुनावों में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने जोर आजमाया था। उन दिनों भी चर्चा थी कि ओवैसी साहब चुनाव मैदान में बीजेपी की मदद करने के उद्देश्य से आए हैं। बीजेपी में उनके शुभचिंतकों ने उनको 36 सीटों से चुनाव लड़वाना चाहा था लेकिन वे उतने उम्मीदवार नहीं जुटा पाए। करीब छ: सीटों पर ही चुनाव लड़ पाए। 2015 के बाद कई चुनावों में ओवैसी की पार्टी ने बीजेपी को परोक्ष रूप से मदद पहुंचाया है। उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में उनकी भूमिका का खास तौर से जिक्र किया जा सकता है। इस बार उन्होंने बिहार में कोइरी जाति के बड़े नेता, उपेन्द्र कुशवाहा के साथ गठबंधन कर लिया है।
उपेन्द्र कुशवाहा 2018 तक नरेंद्र मोदी की सरकार में मंत्री थे, 2014 में उनको एनडीए में शामिल किया गया था और लोकसभा की तीन सीटें मिली थीं। तीनों जीत गए थे और दावा किया था कि उनकी बिरादरी के सभी वोट उनके कारण ही एनडीए उम्मीदवारों को मिले थे। अपने इस आत्मविश्वास के कारण ही 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले उन्होंने यह आरोप लगाकर कि मोदी सरकार सामाजिक न्याय की शक्तियों को कम महत्व दे रही है, एनडीए से अपने को अलग कर लिया था।
2019 में उनको एक भी सीट नहीं मिली। अभी कुछ दिन पहले तक उपेन्द्र कुशवाहा तेजस्वी यादव के साथ थे लेकिन वहां से अलग हो गए। चर्चा तो यह भी थी कि वे वापस एनडीए में जाना चाहते हैं लेकिन बात नहीं बनी। अनुमान के मुताबिक उनकी जाति के मतदाताओं की संख्या बिहार में करीब आठ प्रतिशत है। 2019 के चुनावों के पहले माना जाता था कि अपनी जाति के वोटरों पर उनका खासा प्रभाव है लेकिन तेजस्वी यादव का मानना है कि ऐसा कुछ नहीं है।
शायद इसीलिए तेजस्वी यादव ने उनको अपने गठबंधन से बाहर जाने के लिए प्रेरित किया। वे महागठबंधन में बड़ी संख्या में सीटों की मांग कर रहे थे। आरजेडी का मानना है कि उपेन्द्र कुशवाहा को ज़्यादा सीटें देने का कोई फायदा नहीं है क्योंकि वे अपनी जाति के वोट ट्रांसफर नहीं करवा पाते। अब वे असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी मजलिस इत्तेहादुल मुसलमीन के साथ गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ने जा रहे हैं।
बिहार चुनाव में राजनीतिक बारीकियों की परतें इतनी ज्यादा हैं कि किसी के लिए सा$फ भविष्यवाणी कर पाना असंभव है। कुछ चुनाव पूर्व सर्वे आए हैं जो अपने हिसाब से सीटों की संख्या आदि बता रही हैं लेकिन टीवी चैनलों द्वारा कराये गए सर्वेक्षणों की विश्वनीयता बहुत कम हो गई है इसलिए उनके आधार पर कुछ भी कह पाना ठीक नहीं होगा। देश की आबादी का एक बड़ा वर्ग मानता है कि यह चुनाव पूर्व सर्वे पार्टियों के प्रचार का साधन मात्र होते हैं, उनका चुनाव की गहाराई से कोई मतलब नहीं होता।
कुछ आंकड़े सा$फसंकेत देते हैं। एक सर्वे के मुताबिक करीब 84 प्रतिशत मतदाता नीतीश कुमार की सरकार से नाराज हैं। इनमें से करीब 54 चाहते हैं कि इस बार नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाना चाहिए। करीब 30 प्रतिशत नाराज होने के बावजूद नीतीश कुमार को हटाने की बात नहीं कर रहे हैं, नीतीश कुमार से केवल 15 प्रतिशत मतदाता संतुष्ट हैं। यह आंकड़ा बिहार चुनाव की मौजूदा समझ को एक दिशा देता है। मुख्यमंत्री के इतने बड़े विरोध के बाद तो तेजस्वी यादव की अगुवाई वाले गठबंधन को अवसर का लाभ ले लेना चाहिए था लेकिन उस गठबन्धन में भी तस्वीर कतई सा$फ नहीं है।
2015 में आरजेडी की सफलता में लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व का बड़ा योगदान था। लोगों को साथ लेकर चलने की लालू प्रसाद की योग्यता उनके बेटे में नहीं है। महागठबंधन की दूसरी पार्टी कांग्रेस है। कांग्रेस में भी नेतृत्व को लेकर जो विवाद है उसके कारण चारों तरफ दुविधा का माहौल है। मुकेश साहनी की विकासशील इंसान पार्टी, उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी पहले ही गठबंधन छोड़ चुके हैं। उनके वोटों में पप्पू यादव की पार्टी भी कुछ वोट ले जायेगी। ऐसी हालत में बातें जलेबी की तरह घुमावदार ही बनी हुई हैं। बीजेपी के प्रति सहानुभूति रखने वाले सर्वे में भी जनता ने जिन मुद्दों को सबसे महत्वपूर्ण बताया है, महागठबंधन के नेता उन मुद्दों पर जनता को लामबंद करने में सफल नहीं हो पा रहे हैं।
बेरोजगारी जनता के मन में सबसे भारी मुद्दा है। करीब पचास प्रतिशत मतदाता नौकरियों को सबसे बड़ा मुद्दा बताते हैं। लॉकडाउन के दौरान देश के बड़े नगरों से आये मजदूरों की दुर्दशा भी बड़ा मुद्दा है। बिहार सरकार ने कोविड की महामारी को जिस तरह से सम्भाला था उसकी भी खूब आलोचना हुई थी। बिहार में बाढ़ तो हर साल आती है। लेकिन नीतीश कुमार के वर्तमान कार्यकाल में बाढ़ के प्रति उनके रवैये की चौतरफा आलोचना हुई थी। पटना शहर जिस तरह से बाढ़ के पानी से परेशान हुआ था, वह सब कुछ लोगों के दिमाग में ताजा है लेकिन महागठबंधन की पार्टियां इन ज्वलंत मुद्दों पर सरकार को घेरने में अब तक नाकामयाब रही हैं।
एनडीए को भी यह सच्चाई पता है इसलिए वे लोग चुनाव अभियान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम को ही आगे रख रहे हैं। उनको विश्वास है कि नरेंद्र मोदी का नाम ही नैया पार लगायेगा। अप्रैल में एक सर्वे हुआ था जिसमें बताया गया था कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता 70 प्रतिशत थी। ताजा सर्वे में यह 44 प्रतिशत बताई जा रही है लेकिन विपक्ष इस गिरते ग्राफ पर फोकस नहीं कर पा रहा है। नीतीश कुमार ने चिराग पासवान को गंभीरता से लेने से सा$फ मना कर दिया था लेकिन इस बीच उनके पिता राम विलास पासवान की मृत्यु के कारण उनके पक्ष में सहानुभूति का माहौल भी है। बिहार की राजनीति में कोई भी पार्टी या गठबंधन 45 से ज़्यादा वोट नहीं पाता।
1952 से लेकर अब तक रिकार्ड देखने से एक बात सा$फसमझ में आ जाती है। 2010 के चुनाव में बिहार में नीतीश कुमार की आंधी थी। 243 में से 206 सीटें उनके गठबंधन को मिली थीं। उसी आत्मविश्वास के चलते उन्होंने नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद पर नामित करने के बीजेपी के फैसले को चुनौती दी थी लेकिन उस चुनाव में भी बीजेपी के साथ हुए उनके गठबंधन को केवल 39 प्रतिशत वोट ही मिले थे। 2015 में नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस एक साथ थे। उस बार महागठबंधन को 44 प्रतिशत वोट मिले थे।
इस बार कई सर्वे एनडीए को ज्यादा प्रतिशत वोट बता रहे हैं। अगर ऐसा हुआ तो विपक्ष की एकदम से धुलाई हो जायेगी लेकिन बिहार में हमेशा एक और एक मिलाकर दो ही नहीं होते, कई बार जोड़ बदल भी जाता है।
एक बात तय है कि बिहार के चुनाव में विपक्ष में लालू यादव के जेल में होने के कारण उन जैसा कोई मजबूत नेता नहीं है और नीतीश कुमार अपनी सरकार की असफलताओं के चलते रक्षात्मक मुद्रा में हैं। उनको नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का सहारा है।
महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव हैं। चुनाव नरेंद्र मोदी बनाम तेजस्वी यादव हो सकता है। अगर ऐसा हुआ तो सबको मालूम है कि नतीजा नरेंद्र मोदी के पक्ष में जायेगा लेकिन अगर चुनाव अगड़ा बनाम पिछड़ा हो गया तो एनडीए में शामिल कई बड़े पिछड़े नेताओं की मौजूदगी के बावजूद एनडीए को अगड़ों के प्रभुत्व वाली पार्टी ही माना जाता है, उस स्थिति में नीतीश कुमार की सरकार बनने की संभावना के लिए खासी मुश्किल पेश आ सकती है।
लेखक – शेष नारायण सिंह

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