समाजवादी पार्टी जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव के जिला स्तरीय प्रबंधन में हुई नाकाम, दिग्गजों की खल रही कमी

आर जे न्यूज़

प्रदेश स्तर पर भी निगरानी में ढिलाई दिखी। कुछ जिलों में ‘अपनों’ के बागी तेवर ने भी मुश्किलें बढ़ा दीं। अंतिम समय में मान मनौव्वल का दौर भी चला, लेकिन नतीजा सिफर रहा।

पार्टी की नीति निर्धारकों में शामिल दूसरी पंक्ति के नेता अपने जिले में भी करिश्मा नहीं दिखा पाए। पार्टी को सिर्फ पांच जिला पंचायत अध्यक्ष से संतोष करना पड़ा। जबकि एक सीट सपा के समर्थन से रालोद को मिली। पिछले चुनाव में सपा को 59 सीटें मिली थीं।

जिपं अध्यक्ष के चुनाव जनता के बजाय सदस्यों का होने की वजह से प्रबंधन अहम होता है। पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने सदस्यों से लेकर जिपं अध्यक्ष पद के उम्मीदवार चयन की जिम्मेदारी जिला कमेटी को दी थी। नामांकन से लेकर नाम वापसी तक सपा के हाथ से 21 सीटें निकल गईं। इस चुनाव में एक-एक सदस्य को लामबंद रखना बड़ी चुनौती होती है। यह कार्य जिला स्तर पर नहीं हो पाया। हालांकि इसके लिए शीर्ष नेतृत्व ने दमखम लगाया, लेकिन हर प्रयास नाकाफी रहा।

स्थानीय प्रबंधन के फेल होने का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि जौनपुर से सपा प्रदेश मुख्यालय में करीब 40 से अधिक सदस्यों के पहुंचने का दावा किया गया था, लेकिन यहां सपा उम्मीदवार को सिर्फ 12 वोट मिले। इसी तरह कन्नौज, कासगंज, सुल्तानपुर सहित कई जिलों में सदस्य संख्या के लिहाज से जीत के करीब होने के बाद भी मतगणना में कम वोट मिले।

इसके विपरीत जहां जिला स्तरीय प्रबंधन मजबूत रहा, वहां विपक्षियों को हर चाल का मुंहतोड़ जवाब मिला। इटावा में सपा के अंशुल यादव निर्विरोध चुने गए तो आजमगढ़, एटा, बलिया, संतकबीरनगर में स्थानीय प्रबंधन जिला पंचायत सदस्यों को अपने खेमे में लामबंद रखने में कामयाब रहे।

पार्टी में दिग्गजों की कमी पड़ी भारी
सपा के पुराने रणनीतिकारों की मानें तो दिग्गजों की कमी भी हार की वजह बनी। पार्टी में यह परिपाटी रही है कि जिलेवार किसी न किसी पुराने नेता को जिम्मेदारी सौंपी जाती थी। ऐसे नेता चुनावी प्रबंधन के धनबल, बाहुबल से लेकर हर फन में माहिर होते थे। इसके लिए पार्टी पहले से ही हर जिले में एक चेहरा रखती रही है। नए जमाने की सपा में इसका अभाव दिखता है।

दूसरी तरफ पार्टी का प्रदेश नेतृत्व खुलकर मैदान में नहीं उतरा। सपा के 51 विधान परिषद सदस्य और 49 विधानसभा सदस्य हैं। ये सदस्य भी जिलों में करिश्मा नहीं दिखा पाए। हमीरपुर, जालौन में सपा मैदान में ही नहीं उतर पाई। खास बात यह है कि पार्टी के नीति निर्धारकों में शामिल दूसरी पंक्ति के नेता अपने जिले में नाकाम रहे।

वे आसपास के हर जिले में सदस्यों को लामबंद करने का दावा करते रहे, लेकिन चुनाव परिणाम आया तो उनका दावा हवाई साबित हुआ। जिपं अध्यक्ष पद के उम्मीदवार चयन में सपा अल्पसंख्यक चेहरे से दूर रही। इसे भी रणनीति के तौर पर ठीक नहीं माना जा रहा है। क्योंकि इन्हें सपा के आधार वोट बैंक के रूप में देखा जाता है।

सपा के गढ़ में भी करीबियों ने बिगाड़ा खेल
जिपं अध्यक्ष के चुनाव में कभी सपा के रणनीतिकार रहने वालों ने बताया कि सैफई परिवार के गढ़ माने जाने वाले जिलों में उनके अपनों की नाराजगी भी भारी पड़ी है। फिरोजाबाद में सैफई परिवार के रिश्तेदार सिरसागंज विधायक हरिओम यादव की नाराजगी भारी पड़ी तो फर्रुखाबाद में सपा के पूर्व मंत्री नरेंद्र सिंह यादव की अनदेखी।

नरेंद्र सिंह की बेटी मोनिका यादव बतौर निर्दलीय प्रत्याशी मैदान में उतरीं और भाजपा के समर्थन से विजेता बनीं। मैनपुरी में सपा के दो पुराने दिग्गजों की लड़ाई में तीसरे उम्मीदवार को मैदान में उतारा गया। लेकिन एकजुटता नहीं बन पाई और हार का सामना करना पड़ा। औरैया में भी कमोबेश यही स्थिति रही।

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