जरूरत है अधिमान्यता के मापदंड बदलने की, पत्रकार संगठन आगे आकर उठायें बीड़ा

जनसंपर्क विभाग मध्यप्रदेश द्वारा जारी की गई 2021 – 22 की सूची बताती है कि 1031 राज्य स्तरीय अधिमान्य पत्रकारों में 286 पत्रकार ऐसे हैं जो स्वतंत्र पत्रकार हैं मगर 1803 जिला स्तरीय तथा 744 तहसील स्तरीय अधिमान्य पत्रकारों में एक भी स्वतंत्र पत्रकार को अधिमान्यता नहीं दी गई है । सवाल यह है कि प्रदेशभर में 3578 अधिमान्य पत्रकारों में से कितने पत्रकार जनसरोकार की मैदानी पत्रकारिता कर रहे हैं । जिसकी जांच किये जाने की जरूरत है ।

सूत्रों का दावा है कि साढ़े तीन हजार से ज्यादा अधिमान्य पत्रकारों में आधा से ज्यादा अधिमान्य पत्रकार जन सरोकार की मैदानी पत्रकारिता छोड़कर सरकार द्वारा परोसी गई रसमलाई का आनंद ले रहे हैं । ये तो एक प्रदेश की बानगी है । पूरे देश के हालचाल कैसे होंगे इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है ।

पत्रकार संगठनों की बागडोर संभाल रहे अधिमान्य पत्रकारों की अस्मिता व विश्वसनीयता दोनों दांव पर लगी है । पत्रकार संगठनों के मुखिया, जो खुद शान्ति के साथ सरकारी रसमलाई का रसास्वादन कर रहे हैं, कहीं इस बात से भयभीत तो नहीं है कि यदि उन्होंने ज्यादा उठक पटक की तो उनके मदारी आका नाराज होकर कहीं उनकी ही अधिमान्यता ना छिनवा दें ।

जहां मीडिया मालिकों के कुनबे का पत्रकारिता के ककहरे से दूर तक का नाता नहीं होने के बाद भी अधिमान्यता की चासनी चूस रहा है वहीं मीडिया मालिकों की नजरें इनायत नहीं होने से मेहनतकश पत्रकार अधिमान्यता की बाट जोह रहा है ।

समय आ गया है जब पत्रकारिता के पसरते दायरे में प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ ही सोशल मीडिया को भी शामिल किया जाना चाहिए । सरकार द्वारा पत्रकारों को दी जाने वाली अधिमान्यता के नियमों में आमूलचूल परिवर्तन कर मीडिया हाऊस में नौकरी कर रहे पत्रकारों के साथ ही स्वतंत्र रूप से पत्रकारिता कर रहे पत्रकारों को भी शामिल करना चाहिए ।

हर एक राज्य में मीडिया हाऊसों के नौकरी पेशा पत्रकारों को अधिमान्यता दिए जाने का प्रावधान किया गया है । सरकार की नजरों में अधिमान्य पत्रकार ही पत्रकार है । उसी के आगे सरकारी लाभ की थाली परोसी जाती है । चूंकि प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कारपोरेट घरानों की मुट्ठी में कैद हो चुका है । मीडिया घरानों और सरकार की जुगलबंदी किसी से छुपी नहीं है । हालात यहां तक बद से बद्तर हो चुके हैं कि जो मीडिया घराना पत्रकारिता को सरकार के बिस्तर पर परोस कर “9नाच मेरी बुलबुल पैसा मिलेगा” कर रहा है उसे ही पैसा मिल रहा है वरना उसकी प्राणवायु रोकने के लिए ईडी, आईटी, सीबीआई जैसे जिन्न तो हैं ही ।

कैसी विडंबना है कि दूसरों के अन्याय के खिलाफ कलम चलाने वाला क़लमकार खुद के खिलाफ हो रहे अन्याय पर एक शब्द भी नहीं लिख पा रहा है । जहां एक ओर प्रिंट मीडिया में 40 – 50 साल से मैदानी पत्रकारिता कर रहे पत्रकार को मीडिया मालिक अधिमान्यता दिए जाने की अनुशंसा तक नहीं करता वहीं पत्रकारिता का ककहरा भी नहीं समझने वाले, जन सरोकार की पत्रकारिता से कोसों दूर रहने वाले परिजनों को अधिमान्यता दिलाकर सरकारी सुविधाओं का उपभोग करने से नहीं चूक रहा है ।

कहने को तो पत्रकारों के पचासों संघ बने हुए हैं । यदाकदा पत्रकार हितों की बात भी करते हैं मगर हकीकत यही है कि सभी कहीं न कहीं सरकार और मीडिया मालिकों की चरणवंदना कर अपना ही उल्लू सीधा कर रहे हैं आम पत्रकार के हिस्से तो हासलाई शून्य ही आता है । पत्रकारिता के बदलते परिवेश में जरूरत है अधिमान्यता दिए जाने के मापदंडों में आमूलचूल परिवर्तन करने की ।

अधिमान्यता दिए जाने की परिधि में प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ ही सोशल मीडिया में जनसरोकार की पत्रकारिता कर रहे नौकरीपेशा तथा स्वतंत्र पत्रकारों को भी शामिल किया जाना चाहिए । जनर्लिस्ट की अधिमान्यता का मापदंड मीडिया मालिक की चरणवंदना होने के बजाय जनसरोकार की पत्रकारिता का दीर्घकालिक अनुभव महत्वपूर्ण होना चाहिए, अधिमान्यता के लिए पत्रकारिता क्षेत्र में कार्यरत संगठनों को भी प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए । जरूरत इस बात की भी है कि पत्रकार संघ अपने निजी हितों को दरकिनार कर सालों से अधिमान्यता के लिए संघर्ष कर रहे पत्रकारों की न्यायोचित मांग को पूरा कराने आगे आएं ।

जिला जनसंपर्क अधिकारी को भी स्वमेव संज्ञान लेकर मीडिया संस्थान में कार्यरत मीडिया कर्मियों सहित स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे कलमकारों को अधिमान्यता दिलाये जाने के लिए आगे आना चाहिए ।

अश्वनी बड़गैंया, अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार

Comments are closed.

This website uses cookies to improve your experience. We'll assume you're ok with this, but you can opt-out if you wish. Accept Read More