राजनीति पर से अपराधियों की छाया हटाने के लिए बेताव न्याय पालिका

13अगस्त 2021

उरई (जालौन)कानून भले ही उन्हें दंगाई समझे लेकिन कर्ताधर्ताओं की निगाह में तो वे कौम के हीरो हैं। वैसे ही जिस तरह माफिया निरीह लोगों की मदद करके, जिनकी मदद में प्रशासन और अदालतें अक्सर लाचार साबित हो जाती हैं, उनके मसीहा का दर्जा हासिल कर लेते हैं तो चुनाव के समय राजनीतिक दलों के लिए उन्हें सिर माथे लेना लाजिमी बन जाता है।

राजनीति के अपराधीकरण को रोकने की जद्दोजहद ऐसी ही गुत्थियों में उलझी हुई है। न्यायपालिका का बस चले तो शायद एक भी आपराधिक मुकदमा दर्ज होने के बाद कोई चुनाव नहीं लड़ सके लेकिन अदालत भी मानती है कि कानून बनाने का अधिकार उसे नहीं विधायिका को है इसलिए वह केवल विधायिका की अंतरात्मा को झकझोर सकती है आगे उसका कोई जोर नहीं है। हाल में उच्चतम न्यायालय में राजनीति के अपराधीकरण को लेकर ज्वलंत जनहित याचिकाओं पर विचार हुआ जिनमें सुप्रीम अदालत ने सरकार और राजनीतिक दलों पर गुस्सा भी दिखाया।

हालांकि यह बात भी सत्य है कि राजनीति के अपराधीकरण की पहचान उतनी ऋजु रेखीय नहीं है जितना न्यायपालिका बनाना चाहती है। कई बार अपराधी और मसीहा के बीच काफी पतली रेखा होती है जिसके कारण मुकदमा दर्ज होने के बावजूद राजनीतिक दल किसी नेता को दो टूक होकर अपराधी मानते हुए उसका बहिष्कार नहीं कर सकते। लेकिन यह भी अपनी जगह सत्य है कि सार्वजनिक जीवन को स्वच्छ बनाने के लिए जब भी कड़े फैसलों की जरूरत आती है राजनीतिक दल कमजोर पड़ जाते हैं और उनकी यह कमजोरी बढ़ती जा रही है। इसलिए राजनीतिक दलों से लोकतंत्र पर हावी होते जा रहे निहित स्वार्थो से टकराने की उम्मीद अब बेमानी हो चुकी है।

उच्चतम न्यायालय ने गत वर्ष राजनीतिक दलों को आदेश दिया था कि वे आपराधिक इतिहास वाले अपने उम्मीदवार का ब्यौरा पार्टी की वेबसाइट पर उसकी उम्मीदवारी तय होने के बाद 48 घंटे के अंदर अपलोड कर देंगे। लेकिन बिहार में जब विधानसभा चुनाव हुए तो राजनीतिक दल उच्चतम न्यायालय के इस आदेश से कतराकर निकल गये। दस राजनीतिक दलों ने 469 ऐसे उम्मीदवार मैदान में उतारे जिनके खिलाफ आपराधिक मुकदमें कायम थे। इसे लेकर उच्चतम न्यायालय ने 9 दलों के खिलाफ सुनवाई की।

माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और राष्ट्रवादी कांग्रेस ने उच्चतम न्यायालय के निर्देश का जरा भी पालन नहीं किया था। इसलिए उच्चतम न्यायालय ने दोनों दलों को पांच-पांच लाख रूपये का जुर्माना भरने के आदेश दिये जबकि 6 अन्य दलों कांग्रेस, जेडीयू, आरजेडी, सीपीआई, लोकजन शक्ति पार्टी और एक अन्य दल पर एक-एक लाख रूपये का जुर्माना ठोका। इन पर शीर्ष अदालत ने इसलिए रहम किया क्योंकि इन्होंने कुछ हद तक उच्चतम न्यायालय के निर्देश की लाज बचाई थी। यह जुर्माना चुनाव आयोग के एक फंड में जमा होगा जिसके बारे में विचार है कि चुनाव आयोग उसके जरिये मतदाताओं को अपराधी उम्मीदवारों के प्रति जागरूक करने में भूमिका निभायेगा।

उच्चतम न्यायालय ने एक अन्य सुनवाई में इस मुददे पर सरकार को आड़े हाथ लिया। गत वर्ष अक्टूबर में उच्चतम न्यायालय ने सरकार से कहा था कि वह इस बात की जानकारी उसे सौंपे कि अभी कितने मुकदमे पूर्व और वर्तमान सांसद, विधायकों के खिलाफ चल रहे हैं, कितने मामलों में उनके खिलाफ सीबीआई, ईडी और एनआईए जांच कर रही है। साथ ही केन्द्र ऐसे मामलों की सुनवाई हेतु विशेष अदालतें गठित करने के लिए फंड जारी करे और इसका ब्यौरा सर्वोच्च अदालत को सौंपे। पर सरकार अभी तक ऐसा करने में विफल रही है। उच्चतम न्यायालय ने इस पर सरकार को कड़ी फटकार लगायी। सालिसिटर जनरल तुषार सिंहा ने किसी तरह अनुरोध करके इसके लिए सरकार को एक और मौका देने का अवसर हासिल कर पाया।

इसी सुनवाई में अदालत द्वारा नियुक्त न्याय मित्र वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसारिया ने अदालत को बताया कि वर्तमान व पूर्व सांसद विधायकों के 4800 से ज्यादा मुकदमे अदालतों में लंबित हैं। उच्चतम न्यायालय ने इस पर सभी राज्यों के हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार से जन प्रतिनिधियों के मुकदमों की सुनवाई कर रहे निचली अदालतों के जजों की लिस्ट मांगी। साथ ही यह भी निर्देश दिये कि इनमें से किसी जज को मुकदमे के दौरान हटाया नहीं जायेगा। यदि उसका स्थानान्तरण करना आवश्यक हो तो हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार से इसकी अनुमति ली जायेगी। हालांकि यह आदेश रिटायर हो जाने वाले जजों पर लागू नहीं होगा। उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि जन प्रतिनिधियों के खिलाफ चल रहे मुकदमों की निगरानी के लिए विशेष पीठ की स्थापना की जा सकती है।

उधर उत्तर प्रदेश सरकार ने मुजफ्फरनगर दंगों के संगीत सोम, सुरेश राणा, कपिल देव और साध्वी प्राची के खिलाफ चल रहे 76 मुकदमे वापस लेने का जो फैसला किया था उसे सुप्रीम कोर्ट ने अटका दिया है। सर्वोच्च न्यायालय को जब बताया गया कि इन पर घातक हथियारों से लैस होकर गैर कानूनी सभा में शामिल होने और लोक सेवकों पर अपनी डयूटी करने से रोकने के लिए हमला करने जैसे संगीन अपराध दर्ज थे और मुजफ्फरनगर के उस दंगे में 65 लोग मारे गये थे व 40 हजार लोग विस्थापित हो गये थे तो इन पर से मुकदमा वापस लेना उच्चतम न्यायालय ने सीआरपीसी की धारा 321 के तहत राज्य सरकार को प्राप्त शक्तियों का दुरूपयोग बताया, कहा कि ऐसा राजनीतिक उद्देश्यों के लिए किया गया है और आदेश किया कि आगे से कोई राज्य सरकार किसी व्यक्ति के खिलाफ मनमाने तरीके से मुकदमें वापस नहीं ले सकेगी। उसे मुकदमें वापस लेने की अनुमति अपने हाईकोर्ट से प्राप्त करनी होगी। इस तरह से उच्चतम न्यायालय ने राजनीतिक कारणों से किसी पर से मुकदमा वापस लेने की परपाटी के मामले में सरकारों के हाथ बांध दिये हैं।

इन सारी कवायदों से स्पष्ट होता है कि राजनीति को अपराधियों से मुक्त करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय किस सीमा तक कटिबद्ध है। उधर एडीआर ने जो आंकड़े जारी किये हैं उससे पता चलता है कि राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए जितनी की सरगर्मी बढ़ी मर्ज उतना ही बढ़ता चला गया है। 2004 के लोकसभा चुनाव में केवल 24 प्रतिशत ऐसे उम्मीदवार चुने गये थे जिनके खिलाफ आपराधिक मुकदमे थे, 2009 में इनकी संख्या बढ़कर 33 प्रतिशत हो गई और 2019 के चुनाव का नतीजा आने पर यह प्रतिशत बढ़कर 43 हो गया। इनमें से एक चैथाई से अधिक निचले सदन के सांसदों पर हत्या, हत्या के प्रयास व बलात्कार जैसे संगीन अपराधों के मुकदमे दर्ज हैं।

एडीआर के ही हवाले से मोदी के 78 सदस्यीय मंत्रिमंडल के बारे में भी जानकारी मिली है कि इनमें से 42 फीसदी यानी 33 मंत्रियों के खिलाफ आपराधिक मुकदमें चल रहे हैं। 24 के खिलाफ तो हत्या, हत्या के प्रयास व डकैती के धाराओं के मुकदमे हैं। यहां तक कि पश्चिम बंगाल से चुनकर आये गृह राज्य मंत्री निशीथ प्रामाणिक के खिलाफ हत्या का मुकदमा कायम है।

राजनीतिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ मुकदमों में अक्सर बचाव के लिए उनका बहाना यह होता है कि विरोध की राजनीति करने की वजह से ऐसे मुकदमे कायम किये गये। राजनीतिक कार्यकर्ताओं को कई बार जन समस्याओं के लिए आंदोलन करने पड़ते हैं जिसमें होने वाली तोड़फोड़ की वजह से मुकदमा दर्ज होने के आधार पर तकनीकी तौर पर तो उन्हें अपराधी माना जा सकता है लेकिन जनमानस की निगाह में वे अपराधी नहीं होते।

इन जटिलताओं की वजह से राजनीति के अपराधीकरण के मर्म को दो टूक होकर समझ पाना मुश्किल है इसीलिए इस मामले में सर्वोच्च अदालत और सरकारों के बीच तालमेल नहीं हो पा रहा है। लेकिन राजनीति पर से अपराधियों की छाया हटना ही चाहिए और यह तब हो सकता है जब राजनीतिक दल खुद ही इसके लिए ईमानदारी से सदिच्छा दिखायें!!

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