जब भी हुआ जेपीसी का गठन, तब सरकारें अगला आम चुनाव हारीं

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देश के 70 साल के संसदीय इतिहास में 8 बार जेपीसी का गठन किया गया। इनमें पांच बार सत्तारूढ़ दल अगला आम चुनाव हार गया। सबसे पहले 1987 में राजीव गांधी सरकार ने बोफोर्स तोप खरीद मामले में  किया था। 1989 में कांग्रेस आम चुनाव हार गई थी।
1992 में पीवी नरसिम्हाराव सरकार ने सुरक्षा एवं बैंकिंग लेन-देन में अनियमितता को लेकर जेपीसी का गठन किया। 1996 में हुए आम चुनाव में कांग्रेस को मात मिली थी। एक कार्यकाल में सबसे ज्यादा दो बार जेपीसी का गठन पिछली मनमोहन सिंह और मौजूदा मोदी सरकार में हुआ। 2003 में वाजपेयी सरकार ने भी जेपीसी का गठन किया था।
संसद का शीतकालीन सत्र चार दिन पहले शुरू हो गया था, लेकिन दोनों सदनों में अब तक सुचारू रूप से कामकाज नहीं हो पाया है। इसकी वजह राफेल डील है। कांग्रेस समेत पूरा विपक्ष केंद्र सरकार से राफेल डील को लेकर जॉइंट पार्लियामेंट कमेटी (जेपीसी) के गठन की मांग कर रहा है। हालांकि, केंद्र सरकार इसके लिए राजी नहीं है।
केंद्र सरकार शुरू से कह रही है कि वह राफेल मुद्दे पर दोनों सदनों में चर्चा के लिए तैयार है। वहीं, सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को राफेल डील पर फैसला सुनाते हुए सरकार को सभी आरोपों से बरी कर दिया। इसके बाद सदन में केंद्र सरकार के मंत्री काफी उत्साह में नजर आए।
हालांकि, फैसले के बाद देर शाम कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके दोबारा जेपीसी के गठन की मांग की। ऐसे में विपक्षी दल सवाल उठा रहे हैं कि आखिर मोदी सरकार जेपीसी का गठन करना क्यों नहीं करना चाहती?
जॉइंट पार्लियामेंट कमेटी (जेपीसी) में दोनों सदनों के सदस्य शामिल होते हैं। जेपीसी का गठन सरकार बेहद गंभीर मामलों में ही करती है। समिति ऐसे किसी भी व्यक्ति, संस्था से पूछताछ कर सकती है, जिसको ले‍कर उसका गठन हुआ है।
यदि वह जेपीसी के समक्ष पेश नहीं होता है तो यह संसद की अवमानना मानी जाती है। जेपीसी संबंधित मामले में लिखित, मौखिक जवाब या फिर दोनों मांग सकती है।
लोकसभा के पूर्व महासचिव व संविधान विशेषज्ञ पीडीटी आचारी बताते हैं कि इस कमेटी में अधिकतम 30-31 सदस्यों की नियुक्ति होती है। समिति का चेयरमैन बहुमत वाली पार्टी के सदस्य को बनाया जाता है।
समिति में शामिल सदस्यों में बहुमत वाले राजनीतिक दल के सदस्यों की संख्या भी अधिक होती है। समिति के पास मामले की जांच के लिए अधिकतम समय सीमा 3 महीने होती है। इसके बाद उसे अपनी रिपोर्ट संसद के समक्ष पेश करनी होती है।
जेपीसी में फैसला बहुमत से होता है। समिति में सबसे ज्यादा लोग सत्तारूढ़ पार्टी के होते हैं। ऐसे में अक्सर निर्णय सरकार के पक्ष में ही आता है। 2जी मामले में ऐसा ही हुआ था।
रिपोर्ट में सरकार को क्लीनचिट मिली, लेकिन कोर्ट में चोरी पकड़ी गई। इसका असर 2014 चुनाव में नजर आया था।
जेपीसी के पास असीमित अधिकार होते हैं। चूंकि यह मामला सीधे प्रधानमंत्री से जुड़ा हुआ है। ऐसे में यदि जेपीसी बनाई गई तो मोदी से भी सवाल हो सकता है।
इसीलिए सरकार जेपीसी के गठन से बच रही है। तर्क, संवेदनशील जानकारियों का दे रही है।
जेपीसी ने अब तक इन मामलों की जांच की
गठन
मामला
नतीजा
1987
बोफोर्स सौदा
1989 में कांग्रेस हारी
1992
सुरक्षा एवं बैंकिंग लेन-देन
1996 में कांग्रेस हारी
2001
स्टॉक मार्केट स्कैम
कोई असर नहीं हुआ
2003
सॉफ्ट ड्रिंक, जूस में पेस्टीसाइड
2004 में अटल सरकार चुनाव हारी
2011
2जी स्पेक्ट्रम घोटाला
2014 में कांग्रेस हारी
2013
वीवीआईपी चॉपर घोटाला
2014 में कांग्रेस हार गई चुनाव
2015
भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास बिल
नतीजा नहीं
2016
एनआरसी
नतीजा नहीं
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2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के लिए गठित जेपीसी में 30 सदस्य थे। 15 सदस्यों ने समिति के अध्यक्ष पीसी चाको को ही हटाने की मांग कर दी थी। वहीं, जेपीसी का गठन ज्यादातर घोटालों को लेकर हुआ है। हालांकि, मोदी सरकार में जेपीसी घोटालों को लेकर नहीं बनी।

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