कभी कश्मीर घाटी में एक नाम हुआ करता था आतंकी समीर वानी (परिवर्तित नाम) का। घाटी में आतंक बढ़ रहा था तब समीर छोटे थे। इनकी उम्र और घाटी में आतंक एक साथ बढ़ा। हिजबुल के बहकावे में आकर ये भी आतंक की राह पर चल दिए। लेकिन आत्मसमर्पण के बाद अब ये सेना में शामिल हो चुके हैं। आतंकी इनके नाम से थर्राते हैं।
समीर ऐसे अकेले शख्स नहीं हैं। सेना की एक यूनिट है, जिसे टेरिटोरियल आर्मी की 162वीं बटालियन कहते हैं। इससे समीर जैसे करीब 258 पूर्व आतंकी जुड़ चुके हैं। ये सरेंडर कर सेना में आए। अब ये देश के लिए इतने समर्पित हैं कि कई जवान तो आतंकी गतिविधियों को रोकने में शहीद भी हो चुके हैं। बीते गणतंत्र दिवस को राजपथ की परेड में सेना के शहीद सैनिक लांस नायक नजीर अहमद की पत्नी ने अशोक चक्र ग्रहण किया तो पूरे राष्ट्र ने उस शख्स को नमन किया जो कभी मिलिटेंट बन गया था, लेकिन सेना की वर्दी पहनकर उन्होंने आतंकियों से लड़ते हुए सर्वोच्च बलिदान किया। नजीर सेना की 162वीं बटालियन के ही वीर सपूत थे।
162वीं बटालियन दहशतगर्दों की नब्ज को करीब से जानती है। उनके ठिकानों के चप्पे-चप्पे को पहचानती है। सर्जिकल स्ट्राइक के समय सेना की उत्तरी कमान की अगुआई कर चुके अवकाश प्राप्त लेफ्टिनेंट जनरल डीएस हुडा ने भास्कर से कहा कि इसमें कोई शक नहीं कि सरेंडर करने के बाद सेना को अपनी सेवाएं दे रहे ये कश्मीरी युवा बेशकीमती खुफिया सूचनाएं रखते हैं। लेकिन, इससे भी अहम बात यह है कि वे लोकल हैं और उनकी राज्य के लोगों तक पहुंच बहुत अच्छी है। वे बहुत जल्दी लोकल आबादी में घुल-मिल जाते हैं। कश्मीर के बाहर से आने वाले सैनिक दो-तीन साल बाद चले जाते हैं, लेकिन इस बटालियन के सैनिकों की लगातार मौजूदगी इसी इलाके में रहती है। इस वजह से काउंटर टेरर ऑपरेशन में उनकी भूमिका और भी कारगर हो जाती है।
सेना के सूत्रों ने कहा कि इससे न सिर्फ उन युवाओं का पुनर्वास हुआ, जिनका भविष्य अंधकारमय लगता था, बल्कि वे हथियारों की ट्रेनिंग के अलावा दहशतगर्दों की चालाकियों, ठिकानों, काम करने के तौर-तरीकों और उनके हिमायतियों को अपने खुद के तजुर्बे से जानते थे। चिनार कोर नाम से लोकप्रिय सेना की 15 कोर के कमांडर रह चुके लेफ्टीनेंट जनरल सुब्रत साहा ने माना कि घुसपैठ रोकने की जो रणनीति कभी 2007 में अपनाई जा रही थी,
वह अब एकदम बदल चुकी है। हमारे पास नए मैप, नए ट्रैक और नए माड्यूल पनप गए हैं जो 162वीं बटालियन के सदस्यों से मिली उपयोगी जानकारी का नतीजा है। घुसपैठ और रिक्रूटमेंट का पूरा पैटर्न पता चल चुका है और इस नए तरह के खुफिया इनपुट के आधार पर इन्हें रोकने के तरीके अपनाए जाने लगे हैं।
सेना के एक शीर्ष अधिकारी ने बताया कि सरेंडर किए हुए मिलिटेंट्स ने सेना में आकर सीमा पार से होने वाली घुसपैठ को रोकने की रणनीति का पूरा नजारा ही बदल दिया। उनके तजुर्बों से सेना को पता चला कि कश्मीर से जब युवाओं को ट्रेनिंग के लिए पीओके ले जाया जाता है तो किन रुट, मॉडल और मॉडस आपरेंडी का सहारा लिया जाता है।
इसी तरह ट्रेनिंग के बाद आतंकवादियों की फिर से इस ओर घुसपैठ कराने के रुट और मॉडल भी रियल इंटेलीजेंस के तौर पर सेना को मिल गए। सेना को आतंकियों को चोरी छिपे पनाह देने वालों की तस्वीर भी बहुत हद तक साफ हो गई। गौरतलब है कि इस साल अभी तक तीन नए युवाओं को ही आतंकी गुट बरगला सके हैं। जबकि पिछले दो वर्षों में 336 युवा दहशतगर्दी के रास्ते पर चले गए थे। सेना की कोशिश है कि ऐसे युवाओं को उनके माता-पिता के जरिये समझा-बुझाकर मुख्य धारा में लाया जाए। वे ऐसे युवाओं को अपनी इस बटालियन में शामिल होने का मौका देते हैं।
162वीं बटालियन कई वीरता पुरस्कार जीत चुकी है। लांस नायक नजीर अहमद वानी के अशोक चक्र के अलावा बटालियन एक शौर्य चक्र, 11 सेना पदक, तीन विशिष्ट सेवा पदक, तीन विशेष सेवा उल्लेख, 33 चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ कमेंडेशन कार्ड, आतंकवाद से लड़ने के लिए नार्दन आर्मी कमांडर से 58 शाबासियां, 36 एप्रिशिएन कार्ड जीत चुकी है। इस यूनिट को कई पीस मिशन अवाॅर्ड और राज्य सरकार की प्रशंसा भी हासिल हुई है।
घाटी के देशभक्त युवाओं को गर्व का रोजगार देने के मकसद से सेना की इस बटालियन का गठन नवंबर 2003 में किया गया था। बाद में यह इस मामले में अनूठी मिसाल बन गई कि जम्मू-कश्मीर लाइट इन्फेंट्री ने कश्मीर के उन युवाओं को अपने साथ लेना शुरू कर दिया, जिन्हें पाकिस्तानी गुटों ने बरगला लिया था और वे आतंक की नर्सरी में शामिल हो गए थे। लेकिन, वहां जाकर इन युवाओं ने खुद को ठगा महसूस किया। कश्मीर मसले का झांसा देकर ट्रेनिंग के लिए ले जाए गए इन युवाओं के साथ ज्यादतियां शुरू हो गईं और हैंडलरों ने उन्हें दूसरे एजेंडे में लगाना शुरू किया। ऐसे में इन युवाओं ने घर वापसी की। सेना ने उनके लिए अपने दरवाजे खोल दिए और 162वीं बटालियन में उनकी भर्ती होने लगी। इन्हें आर्मी के जवानों के बराबर ही सैलरी और सुविधाएं मिलती हैं। ये टेरिटोरियल आर्मी के स्वयंसेवकों से अलग हैं।
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कुपवाड़ा में आतंकी पैठ बढ़ा रहे थे। बटालियन को खुफिया सूचनाएं मिल रही थींं। इसी आधार पर कार्रवाई हुई। यूनिट को शौर्य पदक भी मिला।
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कश्मीर में बाढ़ के समय इन जवानों की अहम भूमिका रही। लोकल होने से सुदूरवर्ती गांवों में तेजी से पहुंचने के मामले में इनका सबने लोहा माना।
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आतंक का रास्ता छोड़कर सेना के लिए काम करने के साथ ये जवान दूसरे कश्मीरी युवाओं और परिवार के लोगों को भी सेना से जुड़ने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।