लखनऊ एयरपोर्ट का मालिक होगा अडानी समूह, वीआईपी मौज मारेगा, जेब कटेगी जनता की।

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नरेश प्रधान,

जिन एयरपोर्टों को सांसदों की 7 कमेटियों ने निजी घरानों के हाथों गिरवी रखने पर आपत्ति दर्ज की थी वे एयरपोर्ट अब अडानी समूह के रहमो-करम पर होंगे। विगत दिनों लखनऊ एयरपोर्ट भी अडानी समूह के हाथों में सौंप दिया गया। अडानी समूह के प्रति सरकार के लगाव का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि इससे पूर्व जिन हवाई अड्डों की पीपीपी माॅडल के तहत नीलामी हो चुकी है वे हवाई अड्डे भी अडानी समूह को मिले हैं।
ऐसा कैसे हो सकता है कि नीलामी में अडानी के अतिरिक्त किसी अन्य ने ऊंची बोली न लगायी हो। सरकार की मंशा शक के दायरे में है और एयरपोर्ट अथाॅरिटी एम्पलाइज यूनियन जांच की मांग कर रही है।
आखिरकार तमाम विरोध के बावजूद भाजपा सरकार के पाॅवरफुल औद्योगिक घराने ‘अडानी समूह’ को वह सौगात दे ही दी गयी जिसकी कोशिश में वह काफी समय से लगा हुआ था। अडानी समूह को अगले 50 वर्षों तक लखनऊ एयरपोर्ट का प्रबंधन और परिचालन का जिम्मा सौंपा गया है। यह प्रक्रिया सरकार की पीपीपी नीति के तहत अपनायी गयी है।
ज्ञात हो लखनऊ एयरपोर्ट के लिए अडानी समूह ने सबसे बड़ी बोली लगाई थी। आशंका तो यहां तक जतायी जा रही है कि सरकार के इशारे पर अडानी समूह को ठेका देने के लिए एयरपोर्ट अथाॅरिटी आॅफ इण्डिया ने सारे प्रबन्ध कर रखे थे। कहना गलत नहीं होगा कि अडानी समूह को भाजपा का चहेता औद्योगिक घराना माना जाता है।
इस घराने के बारे में यह भी कहा जाता है कि इसने भाजपा के चुनाव में अरबों रुपया दांव पर लगा रखा है जिसकी भरपायी के रूप में लखनऊ एयरपोर्ट को सौंपे जाने के तौर पर भी देखा जा रहा है। कहा तो यह भी जा रहा है कि इसी तरह से अहमदाबाद, तिरुअनन्तपुरम, मंगलूरु और जयपुर हवाई अड्डा भी पीपीपी माॅडल के तहत अडानी समूह को सौंपा गया है।
हालांकि लखनऊ छोड़कर अन्य चार हवाई अड्डे अभी तक इस समूह के पास इसलिए नहीं आए हैं क्योंकि कोर्ट में चुनौती दी गयी है और कोर्ट ने इस मामले में स्टे दे रखा है।
लखनऊ के लिए इस समूह ने सबसे ऊंची बोली 177 रुपए प्रति यात्री लगाई थी। दूसरी सबसे बड़ी बोली एएमपी कैपिटल ने लगाई थी। प्राप्त जानकारी के अनुसार लखनऊ एयरपोर्ट की वार्षिक क्षमता लगभग 50 लाख यात्रियों की है। अडानी समूह के हाथों में चले जाने के बाद से सरकार के खजाने में 88 करोड़ 50 लाख रुपयों का इजाफा होने की संभावना जतायी जा रही है।
प्रश्न यह भी है कि क्या यह समूह इमानदारी से यात्रियों की संख्या दर्शाते हुए तय रकम की अदायगी करेगा? प्रश्न औद्योगिक घराने और सरकार के विश्वास के बीच का है। अडानी समूह सरकार के विश्वास पर कितना खरा उतरता है और अन्तर्राष्ट्रीय मानकों का कितना पालन करता है? यह तो समय बतायेगा लेकिन इतना जरूर तय है कि औद्योगिक घराना कमाई करने की अंधी दौड़ में यात्रियों की जेबों पर डाका जरूर डालेगा।
ज्ञात हो अभी तक लखनऊ एयरपोर्ट की जिम्मेदारी एयरपोर्ट अथाॅरिटी संभालती आ रही है और आगामी 28 फरवरी को स्वामित्व से सम्बन्धित लिखित आदेश के बाद लखनऊ एयरपोर्ट का जिम्मा निजी कंपनी ‘अडानी समूह’ को दे दिया जायेगा।

ये तो थी सरकार द्वारा अपने चहेते औद्योगिक घराने को हवाई अड्डा सौंपे जाने की प्रक्रिया की, अब प्रकाश डालते हैं इस नीलामी को लेकर सरकार की गलत मंशा की। लखनऊ एयरपोर्ट को निजी हाथों में सौंपे जाने को लेकर एयरपोर्ट अथाॅरिटी एम्प्लाइज यूनियन काफी समय से सरकार के इस फैसले का विरोध करती चली आ रही है।
यूनियन के नेताओं का दावा है कि भारत सरकार की उड्डयन नीति के अधीन जो नियम बनाए गए हैं उनका उड्डयन मंत्रालय द्वारा खुलेआम उल्लंघन किया गया है। नियम यह है कि जो हवाई अड्डे जर्जर अवस्था में और घाटे में चल रहे हैं उनको पीपीपी माॅडल के तहत निजी हाथों में सौंपे जाने की व्यवस्था नियमों में दी गयी है और जो हवाई अड्डे प्राॅफिट में चल रहे हैं उन्हें निजी हाथों में नहीं दिया जा सकता।
रही बाबत लखनऊ एयरपोर्ट की तो यह एयरपोर्ट पिछले कई वर्षों से फायदे में चल रहा है और सरकार को समय से जीएसटी सहित अन्य तरह के करों का भुगतान भी करता आ रहा है। अब प्रश्न यह उठता है कि जब यह एयरपोर्ट फायदे में चल रहा था तो इस एयरपोर्ट को सरकार ने अडानी समूह के हाथों में क्यों दिया?
प्रश्न महत्वपूर्ण है और इस सवाल को यदि किसी डिबेट में शामिल कर लिया जाए तो शायद सरकार के पास इसका जवाब नहीं मिलेगा। इस सम्बन्ध में यूनियन नेताओं का कहना है कि मौजूदा मोदी सरकार अडानी और अम्बानी जैसे औद्योगिक घरानों को मजबूत करने के लिए ही इस तरह की नीति अपना रही है।
उसकी मंशा है कि जाते-जाते इन औद्योगिक घरानों को इतना मजबूती प्रदान कर दो ताकि ये घराने समय आने पर पार्टी के लिए भामाशाह की भूमिका में नजर आएं। कहा यह भी जा रहा है कि इसी आधार पर भविष्य में कई और फायदेमंद औद्योगिक संस्थाएं निजी घरानों को सौंपी जा सकती हैं।
लखनऊ हवाई अड्डे के निजीकरण से सर्वाधिक नुकसान यात्रियों को होने वाला है। अभी तक हवाई अड्डे पर संचालित दो दर्जन से अधिक दुकानों में जिन दरों पर सामान बेचा जा रहा था अब वही सामान और अधिक दामों पर बेचा जायेगा। स्पष्ट शब्दों में कहें तो सरकारी फैसले से जेब आम आदमी की कटने वाली है।
जब इस सम्बन्ध में इस संवाददाता ने विरोध दर्ज करते चले आ रहे एयरपोर्ट अथाॅरिटी एम्पलाइज यूनियन के अध्यक्ष दिलीप कुमार से जानकारी चाही तो उन्होंने छूटते ही प्रश्न किया, ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी जब इण्डिया में आयी थी तो उन्होंने इण्डिया के लोगों के साथ क्या किया था? सभी जानते हैं लिहाजा इस सम्बन्ध में जानकारी देने से अच्छा है कि मैं यह बता दूं कि प्राइवेट कम्पनियों के आने से वीआईपी को सुविधा मिलेगी लेकिन आम जनता की जेबों पर बोझ पडे़गा।’
निजी हाथों में चले जाने से लखनऊ एयरपोर्ट कर्मियों को क्या फर्क पडे़गा? यह पूछे जाने पर दिलीप कुमार कहते हैं कि असल में उनकी लड़ाई सिर्फ उन कर्मचारियों के हितों के लिए है जो आउटसोर्सिंग माध्यम से काम करती चली आ रही है। जो कर्मी ठेके पर काम करते हैं निश्चित तौर पर या तो उन्हें निकालकर दूसरे कर्मियों की भर्ती की जायेगी या फिर कम्पनी अपनी शर्तों पर कम पैसों में काम के लिए विवश करेगी।
इतना ही नहीं ठेके पर काम के दौरान कमीशनबाजी भी होगी और कमीशन न देने वालों को बाहर निकाले जाने की धमकी भी दी जायेगी। जाहिर सी बात है जब प्राइवेट कम्पनी को कम पैसों में कर्मचारी मिलेंगे तो ज्यादा पैसा वह क्यों खर्च करेगी। स्पष्ट है कर्मचारियों के बीच रोष अवश्य उत्पन्न होगा।

ज्ञात हो लेबर एक्ट में स्पष्ट निर्दिष्ट है कि अनस्किल्ड लेबर को प्रतिदिन 536 रुपया 7 घण्टे काम के एवज में दिया जाए लेकिन शायद ही किसी ठेकेदार ने अभी तक इस नियम का पालन किया हो। यूनियन के अध्यक्ष का कहना है कि इस एयरपोर्ट को अच्छी सुविधाएं देने के एवज में एवार्ड भी मिल चुका है। इतना ही नहीं नहीं यह एयरपोर्ट इण्टरनेशनल स्टैण्डर्ड मेंटेन करता चला आ रहा है। रही बात फायदे की तो यह हवाई अड्डा 100 प्रतिशत फायदे में चल रहा है। ऐसी स्थिति में इस एयरपोर्ट को निजी हाथों में सौंपे जाने का कोई औचित्य नहीं बनता।
फिलहाल केन्द्र सरकार के निर्देश पर नागरिक उड्डयन मंत्रालय द्वारा हवाई अड्डों को निजी हाथों में सौंपे जाने की प्रक्रिया चहेते औद्योगिक घराने को लाभ पहुंचाती प्रतीत हो रही है। प्रश्न यह भी उठ रहा है, ‘जो हवाई अड्डे घाटे में चल रहे हैं उन्हें निजी हाथों में क्यों नहीं सौंपा गया?
क्या घाटा देने वाले हवाई अड्डे सरकार चलायेगी और मलाईदार हवाई अड्डे निजी घराने?’ एयरपोर्ट अथाॅरिटी एम्पलाइज यूनियन नेताओं का सवाल वाजिब है लेकिन इस सवाल का जवाब जिम्मेदार अधिकारी देने के लिए तैयार नहीं, सिर्फ इतना ही कहते हैं केन्द्र सरकार के आदेशों का पालन मात्र किया जा रहा है।

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