आदिवासियों से बड़ा देशभक्त कोई नहीं

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भोपाल। आदिवासियों, जंगल और जमीन के लिए लगभग चार दशक से लड़ाई लड़ रहे एकता परिषद के संस्थापक पी. वी. राजगोपाल आदिवासियों को सबसे बड़ा देशभक्त मानते हैं। उनका कहना है कि आदिवासियों ने समाज, जंगल और प्रकृति के लिए हमेशा अन्याय सहा है, और अब इस बात का डर है कि कहीं यह वर्ग विद्रोह के रास्ते पर न चल पड़े।
वन भूमि पर काबिज वनवासियों और जनजातियों की बेदखली के आदेश पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लगाई गई रोक के बावजूद बनी संशय की स्थिति पर विचार-विमर्श के लिए यहां ’वनाधिकार : चुनौतियां और समाधान’ विषय पर आयोजित राज्यस्तरीय सम्मेलन में हिस्सा लेने आए राजगोपाल ने कहा कि बड़ा मुद्दा यह है कि देश की आजादी के बाद से ही आदिवासियों का मुद्दा बना हुआ है।
राजगोपाल कहते हैं, “आदिवासियों को हमेशा उजाड़ने का अभियान चला है। सरकारों ने वादे किए मगर हुआ कुछ नहीं। वनवासियों को जंगल से उजाड़कर पहाड़ों पर जाने को मजबूर किया गया, आदिवासियों ने कभी भी इसका विरोध नहीं किया, वे देश में अशांति का कारण नहीं बनना चाहते, क्योंकि वे प्रकृति और देश से प्रेम करते हैं। वास्तव में आदिवासियों, वनवासियों से बड़ा देशभक्त कोई और नहीं है।“
आदिवासी अपने हक की लड़ाई लंबे समय से लड़ रहे हैं। फिर भी उन्हें जमीन का मालिकाना हक क्यों नही मिल पा रहा है? उन्होंने कहा, “सरकारों की कभी मंशा ही नहीं रही कि आदिवासियों का जीवन बदले। यही कारण है कि उन्हें वादों के जाल में उलझाया गया।
जब सरकारें एक बटन दबाकर किसानों को कर्जमाफी, अन्य वगरें को सुविधाएं दे सकती हैं, तो वनाधिकार के मामले में ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता। वास्तविकता यह है कि सरकारों ने आदिवासियों की सहजता और देशभक्ति को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं।“
आदिवासियों और वनवासियों के लिए वनाधिकार कानून में वन भूमि पर काबिज होने की समय सीमा तय किए जाने और आदिवासियों के पास दस्तावेज न होने की स्थिति में सरकार के सामने पैदा हुई समस्या के सवाल पर राजगोपाल ने कहा, “देश में कई ऐसी जनजातियां हैं, जो आदिम जातियां हैं। आशय साफ है कि उनका पूरा जीवन जंगलों में गुजरा है।
उनका पूरा जीवन जंगल पर निर्भर है, फिर यह कैसी नीति कि जो वर्ष 2005 से वन भूमि पर काबिज हैं, उन्हें ही कब्जा मिलेगा। सवाल उठता है कि जिनकी पीढ़ियां जंगलों में गुजरी हैं, उनसे यह प्रमाण मांगने का औचित्य क्या है। सरकार की मंशा हो तो इन परिवारों को एक पल में ही मालिकाना हक दिया जा सकता है।“
आखिर आदिवासियों और वनवासियों को जमीन का हक बगैर किसी समस्या के कैसे मिल सकता है? राजगोपाल ने कहा, “सरकारों को वनाधिकार कानून लागू करने को प्राथमिकता देनी चाहिए। दस्तावेज और भूमि पर काबिज होने की समय सीमा तय करने से बात नहीं बनेगी। जो लोग जमीन पर काबिज हैं, उन्हें उसका मालिकाना हक दिया जाए।
ऐसा न किए जाने पर कई बार आदिवासी अपने हिसाब से फैसले करते हैं। यही कारण है कि छत्तीगसढ़ में आदिवासियों ने पत्थरगढ़ी जैसे आंदोलन को अपनाया। इसके कारण उन्हें नक्सली कहा गया, यह विरोध था, आदिवासियों ने अपना कानून बना लिया।“
सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में वनवासियों और आदिवासियों की बेदखली के आदेश पर रोक लगा दी। आदिवासियों ने इसे किस रूप में लिया? उन्होंने कहा, “बेदखली के आदेश पर लगाई गई रोक से जंगल में बसे परिवारों ने राहत महसूस की है।
अब छह माह का समय है, लिहाजा सरकारों को इन मामलों को तेजी से निपटाना चाहिए। जो परिवार जंगलों में बसे हैं, वे संशय में हैं, आखिर उनका क्या होगा। छह माह तक संशय बना रहेगा, जब तक प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती।“
राजगोपाल ने आगे कहा, “लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने वन भूमि पर काबिज परिवारों को हटाने की बात कही है। इसका मतलब साफ है कि वहां लोग बसे हैं। सर्वोच्च न्यायालय अगर इन परिवारों के पुनर्वास की बात करता तो ठीक था।“
ज्ञात हो कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से देश में लगभग 10 लाख जनजातीय वर्ग और वनवासी परिवार प्रभावित होने वाले हैं। मध्य प्रदेश देश का ऐसा राज्य है, जहां साढ़े तीन लाख से ज्यादा परिवार इस फैसले से प्रभावित होने वाले हैं। ऐसे में सरकार को क्या रुख अपनाना चाहिए?
उन्होंने कहा, “इन परिवारों के पास ऐसे दस्तावेज नहीं हैं, जो यह बताते हों कि वे कितने वषरें से जमीन पर काबिज हैं। ये परिवार तो वन, वनस्पतियों की रक्षा करते आए हैं और पीढ़ियों से वहां काबिज हैं। लिहाजा सरकार इन परिवारों के प्रति नरम रवैया अपनाए, और उनके काबिज होने की अवधि का अपने स्तर पर पता लगाए।“

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