कश्मीर: इलेक्शन बॉयकॉट के नारों के बीच पार्टी के कार्यक्रमों में मुँह छुपा रहे हैं भाजपाई

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श्रीनगर। चुनाव के नाम पर श्रीनगर के बटमालू के घर में बैठे 70 साल के बुजुर्ग अब्दुल रहीम नाराज हो उठे। कहने लगे ‘हमारी 3 सीटों से हिंदुस्तान की सरकार को क्या फर्क पड़ेगा? मेहबूबा मुफ्ती हो या फारुक अब्दुल्ला इन्होंने आज तक संसद में हमारे कश्मीर के लिए कुछ नहीं बोला। सोचा नहीं कि वोट डालने निकलेंगे भी या नहीं।
सुरक्षा हालातों के बीच इस बार भी कश्मीर में चुनाव आसान नहीं होंगे।’ अप्रैल 2017 में उपचुनाव में श्रीनगर सीट पर सिर्फ 7% वोट पड़े थे। जबकि अनंतनाग सीट के उप चुनाव को आतंकी हिंसा के चलते निरस्त करना पड़ा था। यही मौका था जब चुनाव टीम को सुरक्षित निकालने के लिए मेजर गोगोई ने पत्थरबाज को जीप से बांधा था। जम्मू-कश्मीर के बारामूला में 11 अप्रैल, श्रीनगर में 18 अप्रैल को वोटिंग है जबकि अनंतनाग में तीन चरणों में 23, 29 अप्रैल और 6 मई को वोटिंग होगी। तीनों सीटें मुस्लिम बाहुल्य हैं बारामूला में 97%, श्रीनगर में 90% और अनंतनाग में 95% मुस्लिम आबादी है।
श्रीनगर सीट का डाउनटाउन, अलगाववादियों के असर वाला सोपोर और साउथ कश्मीर में कुछ परसेंट वोट पड़ने की संभावनाएंं हैं। कारण, अलगाववादियों से चुनावों के बायकॉट से इतर कोई उम्मीद नहीं है। पुलवामा हमले और हर दिन होने वाले एनकाउंटर सेे फैले तनाव के बीच चुनावी माहौल लापता ही है। दीवारों पर लिखा है- बायकॉट इलेक्शन। श्रीनगर में भाजपा की रैली में कार्यकर्ता मुंह छिपाते नजर आए।

पूछा तो बोले पॉलिटिक्स से जुड़ने का पता भी चल गया तो जान को खतरा होगा। पीडीपी नेता और पूर्व सीएम महबूबा मुफ्ती कहती हैं राज्य में असेंबली चुनाव भी साथ होते तो शायद लोग चुनाव में भाग लेते। लोकसभा में लोगों को कम रूचि है। नेशनल कॉन्फ्रेंस के अब्दुल रहीम राथर कहते हैं जमकर लड़ेंगे, जमकर वोट डलेंगे। नेशनल कॉन्फ्रेंस कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ेगी।
आईएएस से नेता बने पोस्टरबॉय शाह फैसल ने पार्टी बना ली है। नाम रखा है जम्मू एंड कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट। वो क्राउडफंडिंग से पैसा जुटा रहे हैं। वो चुनाव लड़ेंगे। जीतेंगे या नहीं कहा नहीं जा सकता लेकिन वोट काटने के काम जरूर आएंगे। श्रीनगर से फारुक अब्दुल्ला दोबारा खड़े हो सकते हैं। लेकिन उनका टिकट कटने की उम्मीद भी है,
क्योंकि नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस गठबंधन शायद ही उन्हें टिकट दे। अनंतनाग सीट पर महबूबा अपने भाई तसाद्दुक या मामा सरताज मदनी को उम्मीदवार बना सकती हैं। ये वो मेनस्ट्रीम पार्टियां हैं जो चुनावों के लिए बेताब हैं।

अनंतनाग के उमर वानी कहते हैं लोगों को नहीं पता की वोट डालने जाएंगे या नहीं। पत्थरबाजी के लिए बदनाम श्रीनगर के डाउनटाउन नौहट्‌टा की रुखसार कहती हैं उन्होंने सिर्फ एक बार वोट डाला है। उनके इलाके में कोई वोट नहीं डालता। पुलवामा की तस्लीमा 35 साल की हैं, उन्हें पता नहीं पोलिंग बूथ कैसा होता है।
वोट डालना तो डल लेक पर शिकारा चलाने वाले आकिब भी नहीं चाहते। कहते हैं हर रोज वो हमारे लड़कों को मार रहे हैं। आकिब के दोस्त मुद्दसर कहते हैं मोदी ने बाढ़ से बचाया लेकिन पीडीपी के साथ सरकार बनाकर बेड़ा गर्क किया है।
पॉलिटिकल एनालिस्ट गौहर गिलानी का अनुमान है कि कश्मीर के जो लीडर चुनाव का दांव खेल रहे हैं वो आज फेल हो चुके हैं। इनकी हिम्मत अपने इलाकों में जाने तक की नहीं है। वहां लोग उनसे सवाल करते हैं और वो जवाब नहीं दे पाते हैं। यहां लोग वोट डालना भी जरूरी नहीं समझते। लेकिन लोकतंत्र में चुनाव करवाना जरूरी है इसलिए कश्मीर में चुनाव हो रहे हैं। पहली बार एक सीट पर तीन चरणों में चुनाव होने जा रहे हैं। जो देश का संभवत: पहला मामला है।
अनंतनाग सबसे ज्यादा आतंकवाद प्रभावित, पर लगातार बढ़ रही वोटिंग
तीनों सीटों की मौजूदा स्थिति
बारामूला अभी पीडीपी के मुजफ्फर हुसैन बेग के पास है। श्रीनगर सीट तारिक हमीद कारा ने जीती थी लेकिन उन्होंने अक्टूबर 2016 में सीट छोड़ दी। उपचुनाव में फारुक अब्दुल्ला जीत गए। अनंतनाग सीट से मेहबूबा मुफ्ती जीती और उनके सीएम बनने पर सीट छोड़ने के बाद से ही खाली है।
आतंक और वोट का ऐसा है नाता
1989 में जब आतंकवाद शुरु हुआ तब बारामुला सीट पर 5.48% और अनंतनाग सीट पर 5.07% वोट पड़े थे। 1998-99 में जब आतंकवाद चरम पर था तब यहां 20 % के आसपास वोट पड़े थे। आतंकी अफजल गुरु और अलगाववादी गिलानी के गढ़ सोपोर में पिछले चुनावों में 1.2 % वोट पड़े थे।
बिजली और रोजगार यहां बड़ा मुद्दा
बिजबिहेड़ा में रहने वाले एजाज अहमद के मुताबिक कश्मीर में चुनावी मुद्दे बाकी देश से जरा हटकर हैं। यहां बिजली सर्दियों में कड़कड़ाती ठंड झेल रही कश्मीर घाटी से गायब हो जाती है और गर्मियों में 38 डिग्री झेल रहे जम्मू से। सड़कें, पानी और नौकरियां यहां भी लोगों की नाराजगी की लिस्ट में सबसे ऊपर हैं। लेकिन किसी नेता का जीतना-हारना निर्भर करता है कि वो मसला ए कश्मीर पर क्या बात करता है या करता ही नहीं।

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