भारत की चिंता “बढ़ती बेरोजगारी”

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पूर्ववर्ती सरकारें या सत्ताधारी दल अपनी उपलब्धियों का चाहे जितना भी बखान करें, सच यह है कि आम आदमी की मुसीबतें एवं तकलीफें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। इसके बजाय रोज नई-नई परेशानियाँ उसके सामने खड़ी होती जा रही हैं और आमजन का जीवन एक जटिल पहेली बनता जा रहा है।
अर्थशास्त्रियों के अनुसार, विकसित एवं विकासशील देशों में महंगाई बढ़ती है, मुद्रास्फीति बढ़ती है, लेकिन बेरोजगारी क्यों बढ़ती है? यह एक ऐसा सवाल है जिससे कई दूसरे सवाल  भी जुड़े हैं जो आपके दिमाग को झकझोरते हैं कि फिर विकास कहाँ हुआ और कौन-सी समस्या घट गयी? क्या देश मुट्ठीभर राजनीतिज्ञों और पूंजीपतियों की बपौती बनकर रह गया है?
बहुराष्ट्रीय मार्केट रिसर्च कंपनी इप्सॉस के द्वारा हालिया सर्वेक्षण ‘वॉट वरीज दी वर्ल्ड ग्लोबल सर्वे’के निष्कर्ष विभिन्न देशों की जनता की अलग-अलग चिंताओं को उजागर करते हैं। जहां तक भारत का प्रश्न है तो यहां बीते मार्च में किए गए सर्वे में ज्यादातर देश के लोग बेरोजगारी को लेकर सबसे ज्यादा परेशान पाए गए।

देश में सरकारी मशीनरी एवं राजनीतिक व्यवस्थाएं सभी रोगग्रस्त

हालांकि आर्थिक और राजनीतिक भ्रष्टाचार की चिंता भी उन्हें परेशान किए हुए है। हमारे देश में सरकारी मशीनरी एवं राजनीतिक व्यवस्थाएं सभी रोगग्रस्त हैं। वे अब तक अपने आपको सिद्धांतों और अनुशासन में ढाल नहीं सके। कारण राष्ट्र का चरित्र कभी इस प्रकार उभर नहीं सका। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार अप्रैल में भारत की बेरोजगारी की दर बढ़कर 7.6 प्रतिशत हो गई, जो अक्टूबर 2016 के बाद सबसे अधिक है और मार्च में 6.71 प्रतिशत थी।
मुंबई स्थित सीएमआईई थिंक-टैंक के प्रमुख महेश व्यास ने रॉयटर्स को बताया, “मार्च में कम बेरोजगारी दर एक झपकी थी, और यह फिर से पहले के महीनों की प्रवृत्ति के बाद चढ़ गई है।”
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए 19 मई को समाप्त हो रहे एक चौंका देने वाले आम चुनाव के दौरान आंकड़े कमजोर हो सकते हैं, विपक्षी दलों ने खेत की कमजोर कीमतों और कम नौकरियों के विकास पर सरकार की आलोचना की है।
अप्रैल में आठ महीनों में फैक्ट्री की गतिविधियों में सबसे धीमी गति से विस्तार हुआ और नए आदेशों और उत्पादन में वृद्धि हुई क्योंकि आम चुनाव के तहत, एक अलग निजी व्यापार सर्वेक्षण मिला क्योंकि वे इस बात को लेकर चिंतित हैं कि मई के अंत तक नई सरकार क्या नीतियां अपनाएगी?
सरकार ने हाल ही में नौकरियों के आंकड़ों को रोक दिया क्योंकि अधिकारियों ने कहा कि उन्हें इसकी सत्यता की जांच करने की आवश्यकता है। भारत आमतौर पर हर पांच साल में केवल आधिकारिक बेरोजगारी के आंकड़े जारी करता है।लेकिन दिसंबर के बेरोजगारी के आंकड़े एक अखबार को लीक कर दिए गए थे और यह दिखाया गया था कि 2017/18 में कम से कम 45 वर्षों में बेरोजगारी दर अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गई। सरकार ने कहा है कि वह साल में एक बार नौकरियों के आंकड़े जारी करेगी।
सीएमआईई ने जनवरी में जारी एक रिपोर्ट में कहा था कि 2016 के अंत में उच्च मूल्य वाले बैंकनोटों के विमुद्रीकरण के बाद 2018 में लगभग 11 मिलियन लोगों ने अपनी नौकरी खो दी और 2017 में एक नए माल और सेवा कर के अराजक लॉन्च ने लाखों छोटे व्यवसायों को प्रभावित किया। सरकार ने इस साल संसद को बताया कि उसके पास छोटे व्यवसायों में नौकरियों पर विमुद्रीकरण के प्रभाव का डेटा नहीं था। 16000 लोगों में से कुल 44.36 प्रतिशत यानी 7057 लोगों ने राष्ट्रवाद को अपना सबसे अहम मुद्दा चुना। उनके मुताबिक मतदान के जरिए अपनी सरकार चुनने के लिए उनका सबसे बड़ा मुद्दा राष्ट्रवाद है।

मतदान के लिए राष्ट्रवाद के बाद बेरोजगारी दूसरा सबसे बड़ा मुद्दा

मतदान करने के लिए राष्ट्रवाद के बाद लोगों ने बेरोजगारी को दूसरा सबसे बड़ा मुद्दा माना। सर्वे में 5582 यानी कुल 35.09 फीसदी लोगों ने बेरोजगारी को सबसे बड़ा मुद्दा बताया। किसानों और उनकी समस्याओं को चुनाव के सबसे बड़े मुद्दों के सर्वे में लोगों ने तीसरे नंबर पर रखा। 1556 लोगों ने, यानी 9.78%  ने कहा कि वो किसानों के मुद्दे पर अपना वोट दे रहे हैं। तमाम विवादों और आरोपों से घिरा हुआ राफेल घोटाले का मामला चुनावों में बहुत असरदार साबित नहीं हुआ। मात्र 1054 यानी 6.63 प्रतिशत लोगों के लिए राफेल चुनावी मुद्दा है। ऐसे में 2019 लोकसभा चुनाव के मुद्दों में राष्ट्रवाद, बेरोजगारी और किसानों के बाद राफेल चौथे स्थान पर है। जो सबसे कम असरदार मु्द्दा है वो है 8 नवंबर 2016 की नोटबंदी। केवल 4.15 प्रतिशत यानी 660 लोगों ने कहा कि मतदान करने के लिए नोटबंदी उनका मुख्य मुद्दा होगा।
नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस की रिपोर्ट भारत में बेरोजगारी के संकट के बारे में साक्ष्य उपलब्ध कराती है जो पिछले 45 वर्षों में सबसे खराब है। राज्य-स्तरीय साक्ष्यों से पता चलता है कि 11 प्रमुख राज्यों में बेरोजगारी दर है जो कि 2017-18 में राष्ट्रीय औसत 6.1 प्रतिशत से अधिक है। 11 राज्य बिहार, ओडिशा, उत्तराखंड, झारखंड, केरल, असम, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, पंजाब और तेलंगाना हैं।
बेरोजगारी के मामले में सबसे खराब स्थिति केरल में 11.4 फीसदी और हरियाणा में 8.6 फीसदी और असम में 8.1 फीसदी है। दूसरी ओर, छत्तीसगढ़ में सबसे कम बेरोजगारी 3.3 प्रतिशत दर्ज की गई, उसके बाद मध्य प्रदेश में 4.5 प्रतिशत और पश्चिम बंगाल में 4.6 प्रतिशत पर बेरोजगारी थी।
2011-12 और 2017-18 के बीच बेरोजगारी में सबसे तेज उछाल 2011-12 में 0.5 प्रतिशत से बढ़कर 2017-18 में 4.8 प्रतिशत हो गई। बेरोजगारी में वृद्धि शहरी क्षेत्र में अर्थव्यवस्था के ग्रामीण क्षेत्र की तुलना में अधिक रही है, हालांकि यह दोनों क्षेत्रों में बढ़ी है। सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के अनुसार, 2018 की अंतिम तिमाही में स्नातकों में बेरोजगारी 13.2 प्रतिशत थी।
इप्सॉस का ऑनलाइन सर्वे 28 देशों के 65 वर्ष से कम आयु के लोगों के बीच किया गया, जिसमें औसतन 58 प्रतिशत नागरिकों ने माना है कि उनका देश नीतियों के मामले में भटक गया है। आर्थिक और राजनीतिक भ्रष्टाचार, गरीबी और सामाजिक असमानता ज्यादातर मुल्कों में बड़े मुद्दे हैं।

बेरोजगारी, अपराध, हिंसा और स्वास्थ्य संबंधी चिंता इनके बाद ही आती है। अपनी सरकार में सबसे ज्यादा विश्वास चीन के लोगों का है। वहां 10 में 9 लोग अपनी सरकारी नीतियों की दिशा सही मानते हैं। जैसे भारत में इस बार का सर्वे पुलवामा हमले के बाद किया गया तो इस पर उस हादसे की छाया थी, लेकिन देश के पिछले सर्वेक्षणों को देखें तो आतंकवाद का स्थान यहां की चिंताओं में नीचे रहा है और बेरोजगारी सबसे बड़ी समस्या के तौर पर देखी जाती रही है।

दरअसल, रोजगार की फिक्र भारत में सबसे ऊपर होने की पुष्टि अन्य सर्वेक्षणों से भी हुई है। लेकिन 17वीं लोकसभा के लिए जारी चुनाव अभियान में ना तो बेरोजगारी के ज्वलंत मुद्दे की उपस्थिति दिखाई देती है और ना ही उस पर कुछ मंथन होता दिखाई देता है। विकास की वर्तमान अवधारणा और उसके चलते फैलती बेरोजगारी को राजनेताओं ने लगभग भुला-सा दिया है, लेकिन ये ही ऐसे मसले हैं जिनके जवाब से कई संकटों से निजात पाई जा सकती है।

  • प्रश्न यह भी है कि क्या भारतीय जनता राजनीतिक दलों एवं नेताओं पर मुहर लगाने की बजाय इस तरह के बुनियादी मुद्दों पर कोई कठोर निर्णय लेगी? हर बार वह अपने मतों से पूरा पक्ष बदल देती है। कभी इस दल को, कभी उस दल को, कभी इस विचारधारा को, कभी उस विचारधारा को। लेकिन अपने जीवन से जुड़े बुनियादी मुद्दों को तवज्जों क्यों नहीं देती? भारतीय जनता की यह सबसे बड़ी कमजोरी रही है।
  • आदर्श सदैव ऊपर से आते हैं लेकिन शीर्ष पर आज इसका अभाव है। वहां मूल्य बन ही नहीं रहे हैं, फलस्वरूप नीचे तक, साधारण से साधारण संस्थाएं, संगठनों और मंचों तक राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि और नफा-नुकसान छाया हुआ है। सोच का मापदण्ड मूल्यों से हटकर राजनीतिक निजी हितों पर ठहर गया है। पिछले ही महीने प्यू रिसर्च सेंटर की रिपोर्ट में 76 प्रतिशत वयस्कों ने बेरोजगारी को बहुत बड़ी समस्या बताया था।
  • दरअसल, भारत में सरकार का आकलन कई मुद्दों को लेकर किया जा रहा है, लिहाजा ज्यादातर लोगों का भरोसा उसकी नीतियों पर बना हुआ है। लेकिन इस बात पर प्रायः आम सहमति है कि रोजगार के मोर्चे पर वह विफल रही है। एक तबका NSSO के हवाले से कहता है कि 2017-18 में बेरोजगारी की दर 6.1 प्रतिशत तक पहुंच गई जो पिछले 45 साल का सर्वोच्च स्तर है। लेकिन इस आंकड़े को सरकार नहीं मानती। जो भी हो, पर इप्सॉस सर्वे में सरकार के लिए यह संदेश छुपा है कि वह सुरक्षा को लेकर तैयारी पुख्ता रखे, लेकिन लोगों की रोजी-रोजगार से जुड़ी मुश्किलों की भी अनदेखी न करे।
  • एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि सभी के लिए संतोषजनक रोजगार उपलब्ध हो तथा रोजगारों से जुड़ी विभिन्न विषमताओं को कम किया जाए। इस संदर्भ में यदि भारत की स्थिति को देखा जाए तो हमारे देश में रोजगार से जुड़ी विषमताएं अनेक स्तर पर मौजूद हैं व उन्हें दूर करने के की दिशा में अभी बहुत कुछ करना शेष है। इनमें से अनेक विषमताओं की ओर हाल ही में जारी की गई वैश्विक एनजीओ ‘ऑक्सफैम-इंडिया’ की रिपोर्ट विषमताओं पर ध्यान देते हुए भारत में रोजगार की स्थिति को प्रमुखता से उभारा है।
  • ‘स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया-2018’के अनुसार भारत में 82 प्रतिशत पुरुषों और 92 प्रतिशत महिलाओं की मासिक आय 10,000 रुपये प्रतिमाह से कम है जो एक बहुत चिंताजनक स्थिति है। 7वे वेतन आयोग ने तय किया था कि न्यूनतम मासिक आय 18,000 रुपये होनी चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के लिए कृषि सबसे बड़ा रोजगार बना हुआ है, पर इस क्षेत्र में भी रोजगार के अवसर कम हो रहे हैं।

    अनेक दलित महिला मजदूरों की स्थिति बंधुआ मजदूरों जैसी है। शहरी क्षेत्रों में घरेलू-कर्मियों में 81 प्रतिशत महिलाएं व तंबाकू-बीड़ी के कार्य में 77 प्रतिशत महिलाएं हैं।

  • ‘ऑक्सफैम’की इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में बेरोजगारी एक बड़ा संकट है। इस संकट का उचित समय पर समाधान न हुआ तो इसका समाज की स्थिरता और शांति पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। एक ओर जो दसियों लाख युवा श्रम-शक्ति में प्रतिवर्ष आ रहे हैं उनके लिए पर्याप्त रोजगार नहीं हैं, दूसरी ओर इन रोजगारों की गुणवत्ता व वेतन अपेक्षा से कहीं कम हैं।
  • लिंग, जाति व धर्म आधारित भेदभावों के कारण भी अनेक युवाओं को रोजगार प्राप्त होने में अतिरिक्त समस्याएं हैं। इस स्थिति से परेशान युवा एक समय के बाद रोजगार की तलाश छोड़ देते हैं। इन कारणों से सरकार द्वारा रोजगार प्राप्ति की सुविधाजनक परिभाषा के बावजूद बेरोजगारी के आंकड़ें चिंताजनक हो रहे हैं व यह प्रवृत्ति आगे और बढ़ सकती है।
  • इस चिंताजनक स्थिति को सुधारने के लिए इस रिपोर्ट ने व्यापक स्तर पर सुधार के सुझाव दिए गए हैं। स्वास्थ्य व शिक्षा में अधिक निवेश से उत्पादकता में सुधार होगा। यह दो क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें भविष्य में बहुत रोजगार सृजन भी हो सकता है। कुशलता बढ़ाने पर बेहतर ध्यान देना चाहिए ताकि अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धा में टिक सकें। सरकार को भ्रष्टाचार दूर करना चाहिए।
  • कर-नीतियों में विषमता की दर कम होनी चाहिए। कॉरपोरेट टैक्स में छूट देने का अतिरिक्त उत्साह उचित नहीं है। इस तरह जो अतिरिक्त राजस्व प्राप्त हो उसका उपयोग शिक्षा, स्वास्थ्य व सामाजिक सुरक्षा सुधारने के लिए करना चाहिए।
उपरोक्त जानकारियों से तीन प्रकार के परिणाम बाहर निकलकर आते हैं । पहला यह है कि भारत के सभी राज्यों और क्षेत्रों में बेरोजगारी बढ़ी है। दूसरा यह है कि शिक्षित युवाओं में भी नौकरियों की कमी है। तीसरी बात यह है कि राज्यों में बेरोजगारी के बढ़ने का कोई ठोस तरीका नहीं है। कोई भी सरकार इस प्रवृत्ति की अनदेखी नहीं कर सकती। यह महसूस किया जाना चाहिए कि राष्ट्रवाद और हिंदुत्व खाली पेट नहीं भर सकते। उदाहरण के लिए, गुजरात को केंद्र सरकार द्वारा शेष भारत में किए जा रहे विकास का एक मॉडल माना जाता है। इस राज्य में बेरोजगारी में सबसे अधिक वृद्धि हुई है।
हालाँकि, पश्चिम बंगाल ने अच्छा प्रदर्शन किया है, भले ही राज्य में बहुत लंबे समय में कोई बड़ा नया निवेश हुआ हो। बेरोजगारी संरचनात्मक और तकनीकी दोनों रही है। कम कुशल नौकरियों का नुकसान नई नौकरियों के निर्माण से अधिक रहा है जिनके लिए विशिष्ट कौशल की आवश्यकता होती है। शिक्षित बेरोजगारों की संख्या में भी वृद्धि हुई है। अगर यही सिलसिला चलता रहा तो बेरोजगारी भारत की सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक समस्या बन जाएगी।

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