वर्तमान समय में अपनी प्रतिभाओं को खोता भारत

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बीते पांच वर्षों में जैसी परिस्थितिया उभर कर सामने आयीं उन्हें देखकर यह महसूस होने लगा कि हमारे सामाजिक और ऐतिहासिक ढांचे पर करारा प्रहार किया गया है। ऐतिहासिक ढांचे को ध्वस्त करने का पूरा प्रयास किया जा रहा है, आज के दौर में मिडिया की खबरों की शक्ल भी बदल दी गयी।
सत्ताधारी दल बीजेपी और आरएसएस ने पूरे देश के सामने एक नया ही इतिहास लाने का पूरा प्रयास किया और इसमें कोई भी शक नहीं कि इसकी जिम्मेदार आज के दौर की मिडिया ही है। जिसकी भागीदारी आज के वर्तमान में अहम् है और वो पूरी तरह से उलट हो गयी है।
हमें यह आभास नहीं हो पा रहा है कि इस क्रम में हमारा सामाजिक, ऐतिहासिक और लोकतान्त्रिक ढांचा पूरी तरह से ध्वस्त होता जा रहा है। हिंदुस्तान के आज के हालात में जहां हमें सत्ताधारी दल से अपनी रोजमर्रा की जरूरतों और अपने मूलभूत मुद्दों पर सवाल पूछना चाहिए लेकिन
हमारा ध्यान तो पूरी तरह एकमात्र चुनावों पर ही केंद्रित हो गया है और चुनावी मौसम में हमें अपनी मूल समस्याएं याद तो नहीं रहतीं। लेकिन वोट डालने से लेकर चुनावी परिणामों की चिंता अवश्य रहती है और पूरी रूचि परिणामों से लेकर सरकार बनने तक में जरूर रहती है और ये लोकतंत्र नहीं है।
लोकतांत्रिक अधिकारों को समझना होगा और इसका एक मात्र माध्यम केवल शिक्षा है, परन्तु इस शैक्षणिक व्यवस्था को इन तमाम राजनितिक दलों ने लगातार ध्वस्त करने का प्रयास किया है। बीते पांच वर्षों में यह और भी बदहाल हो गया है और हमें यह भी समझ होगा की हमारा लोकतंत्र भी बदहाल हो चला है।
अपनी आँखें खोलनी होंगी और प्रचार तंत्र से बचने के साथ-साथ हमें अपने जमीनी मुद्दों को भी समझना होगा एवं गहनता से अध्यन करना होगा।
आज हम अपनी लोकतान्त्रिक ताकत एक मात्र अपने वोट देने के अधिकार को समझते हैं लेकिन सच्चाई ये है कि वोट देने की ताकत भी अब हमारी नहीं रही है इसका एकमात्र कारण है प्रचार तंत्र हम पर पूरी तरह से हावी हो गया है।
हमें यह भी समझना होगा की राजनितिक पार्टिया जो भी सपने हमें दिखाती है क्या वो उसे पूरा करने में समर्थ होंगी? या उनके शासनकाल में जमीन पर क्या आया? और हमार समाज वैचारिक तौर पर कहाँ से कहाँ पहुँच गया?  क्या हम विकास की और अग्रसर हैं? या हम विनाश की और बढ़ रहे हैं।
हमें यह भी सोचने की आवश्यकता है की आने वाले समय में हम अपनी पीढ़ी को क्या सौंप कर जाएंगे? वर्तमान समय में शिक्षा का स्तर कहाँ गायब होता चला जा रहा है? बीते पांच वर्षों के दौरान शिक्षा का लगातार पतन होता चला गया।
हमारे दिमाग में सिर्फ और सिर्फ राजनीति और चुनाव भरा जा रहा है और इस नशे का असर यूँ है कि हमारा कौशल-योग्यता कहीं गायब होती जा रही है। हमें यह अवश्य समझना होगा कि जब हम शिक्षित ही नहीं होंगे तो लोकतंत्र कहाँ बचा?
अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल हम तभी कर सकते हैं। जब हम शिक्षित होंगे परन्तु लगातार हमारी इन लोकतांत्रिक संस्थाओं पर रेड डाली जा रही है और यह भी एक कटु सत्य है। जिसे समझने की अत्यंत आवश्यकता है कि सरकारें जो तब थी और अब हैं वो बिलकुल नहीं चाहती कि
वो यह बिल्कु नहीं चाहतीं की आप शिक्षित हो और यही कारण है कि वर्तमान शिक्षा अपने निम्न स्तर पर है। जिसका पूरी तरह से निजीकरण किया जा चुका है। शिक्षा जो आमजन की पहुंच से बहुत दूर जा चुकी है जब आप ठीक ढंग से शिक्षित ही नहीं होंगे, तो ये सरकारों के लिए अनुकूल है शिक्षा के प्रति गंभीर न होकर हम अपने बुनियादी ढांचे को खोते जा रहे हैं और सरकारें इसी का लाभ सदैव हमसे लेती रहती हैं।
लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ मानी जाने वाली मिडिया का एक बड़ा हिस्सा जो आर्थिक निति को पूर्ण रूप से अपनाकर आमजन से दूर होता चला गया और सत्ताधारी पार्टियों के अनुसार कार्य करने लगा है। सत्ताधारी दल जो पढ़ाना चाहते है या जो दिखाना चाहते हैं वही मिडिया लिख रही है और दिखा रही है। अपनी बुद्धिमता एवं अपने सोचने की क्षमता को हम पूरी तरह से खोते जा रहे हैं।
चुनाव तो पहले भी होते थे आज भी हैं और आगे भी होते रहेंगे और हम सदैव बेहतर को चुनने के लिए वोट डालते रहेंगे और सरकारें भी बदलती रहेंगी और बेहतर की उम्मीद हमेशा करते रहेंगे लेकिन
हमें यह भी सोचना होगा कि हमने इतनी सरकारें बदलीं लेकिन हमारा क्या बदल गया? जमीनी स्तर पर इन सरकारों ने आमजन के लिए क्या सुधार किया? पूर्ववर्ती सरकारें जिस प्रकार कार्यशैली सत्ता में रहते विपक्ष की वर्तमान सरकार को दिखा जाती हैं संभवतः वो भी उसी कार्यशैली पर चलते हुए दिखाई देते हैं कोई भी राजनितिक पार्टी चुनाव में जमीनी तौर पर परिवर्तन लाने, आमजन की बात एवं राजनीति की एक नई दिशा की बात करती है लेकिन
सत्ता पर काबिज होने के बाद ऐसा क्या हो जाता है कि इनकी सोच आमजन को साथ लेकर चलने के बजाय, सत्ता हाथ से न जाए इसके प्रति गंभीर हो जाती है अब हमें इसपर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है कि हमारे देश की वर्तमान दशा और दिशा किस ओर जा रही है?
इसका मूल मुद्दा है। हमारी शिक्षा व्यवस्था एवं असमानता अब हमें इस मुद्दे पर गंभीर होने की आवश्यकता है बड़े आश्चर्य की बात है पिछले दो तीन वर्षों के दौरान उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों ने सबसे ज्यादा संख्या में भारत छोड़ दिया आकड़े बताते हैं कि
वर्ष 2017 के दौरान उच्च शिक्षा के लिए 586183 ( पांच लाख छियासी हजार एक सौ तिरासी) और वर्ष 2018 के दौरान 772725 (सात लाख बहत्तर हजार सात सौ पच्चीस) छात्रों ने भारत छोड़ दिया और असमानता की बात करें तो यह प्रतिशत 48% हो गया है।
वैश्विक स्तर पर यह प्रतिशत 36% है वर्तमान परिस्थितियों में राजनितिक पार्टियों ने हमारी सभी क्षमताएं जो हमें लगता है कि हमारे पास हैं लेकिन असल में ये इन राजनितिक पार्टियों की क्षमता बमन गयी है अगर ऐसे समझे तो पिछले लोकसभा चुनाव में चुनावी खर्च जो 3.5 हजार करोड़ था और चुनाव दर चुनाव यह आकड़ा आसमान छूता जा रहा है।
यह पैसा, जो राजनितिक पार्टियाँ पानी की तरह बहा रही हैं, यह किसका पैसा है? कहाँ से आ रहा हैं? और कैसा पैसा है? हिन्दुस्तान में बेरोजगारी मुँह फैलाये खड़ी है। भारतियों की स्थिति बिलकुल न के बराबर है निजी संस्थानों की भी हालत ठीक नहीं है और यह कहना बिलकुल सही होगा कि हमारी नीतियों को लकवा मार गया है और
सत्ता तक पहुँचना राजनेताओं की अपनी ऐशगाह तक पहुंचने की एक मात्रा सोच बनकर रह गयी है। वर्तमान दौर की राजनीति ने हमारे देश को असहाय स्थिति की और धकेलना शुरू कर दिया है और हम अपने बुनियादी ढाँचे को खोते जा रहे हैं धोखा, फरेब और कुर्सी पाने के लिए हमारी भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने की कला राजनितिक पार्टियों को अच्छे से आती है और
हमें इससे बचने के लिए इस पर गंभीरता से विचार करना होगा सपनों से बाहर निकलना होगा क्योंकि सबसे दुःखद यही होगा जब आपके सपने ही मर जाएंगे हमारी वर्तमान राजनितिक सोच और विकास एकमात्र चेहरे पर टिक जाती है परन्तु यह पूर्ण रूप से हमारा राजनितिक ढाँचा नहीं होना चाहिए क्योंकि ऐसा करके आप अपने सपनों की ह्त्या कर रहे हैं ।
और अपनी शिक्षा को कम से कम खारिज न होने दें बल्कि उन चीजों के साथ बने रहे। जिस देश की शिक्षा अपने सांस्कृतिक मूल्यों, स्वदेशीपन, अंतर्राष्ट्रीय तौर पर मान्यता या अपने परिवार और समाज से न जुडी हो वो शिक्षा नहीं डिग्री है।
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