चंद्रयान-2 : कई खतरों से गुजरेगा आखिरी समय में चंद्रयान, अंतिम 30 मिनट होंगे चुनौतीपूर्ण

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पृथ्वी से 22 जुलाई को निकला अपना चंद्रयान-2 शुक्रवार देर रात और तकनीक रूप से कहें तो सात सितंबर की रात चंद्रमा की सतह पर उतरेगा।
इस पूरे समय इसने बिना किसी किसी बाधा और अड़चन के अपनी यात्रा पूरी की।
लेकिन सबसे रोचक और रोमांचक चंद्रमा की सतह पर उतरने से पहले के 30 मिनट होंगे,
जिसमें हर मिनट उसके लिए एक परीक्षा होगा। इसरो ने इसे मिशन का सबसे चुनौतीपूर्ण काम माना है।
दो सितंबर को ऑर्बिटर से अलग होने के साथ ही चंद्रयान के बाकी दो हिस्सों लैंडर विक्रम और रोवर प्रज्ञान ने चंद्रमा की सतह के लिए अपनी यात्रा शुरू कर दी थी।
पहले जीएसएलवी मार्क-3 के सख्त कवच के भीतर और फिर ऑर्बिटर का मजबूत साथ उसे मंजिल तक पहुंचने में मदद कर रहे हैं।
लेकिन आगे की राह उसे खुद ही तय करनी होगी। चंद्रमा की परिक्रमा करने के बाद चंद्रमा की ओर शुरू होने वाली लैंडिंग कई खतरे और चुनौतियां लेकर आएगी।
लैडिंंग के दौरान इन खतरों से गुजरेगा चंद्रयान-2
इसरो ने गहन शोध के बाद विक्रम को उतारने की जगह का चुनाव किया है
और तमाम खतरों को कम किया गया, जैसा अमर उजाला ने पिछली रिपोर्ट में बताया।
इसके बावजूद कुछ खतरे चंद्रमा की भौगोलिक स्थिति की वजह से शत-प्रतिशत खत्म नहीं हुए हैं।
इनमें यह चार प्रमुख हैं –
1). गुरुत्वाकर्षण और तनाव : 
चंद्रमा पर उतरते समय उसके गुरुत्वाकर्षण से संतुलन बनाए रखना और दबाव से गुजरना विक्रम के लिए मुश्किल होगा।
यहां उसे सौर गतिविधियों व आंधियों से पैदा हुए दबाव को भी सहना है।
हालांकि चंद्रमा का अपना वातावरण न होने की वजह से उसके लिए कुछ मुश्किलें आसान होगी।
लेकिन रेडिएशन के अलग-अलग स्तर खतरनाक हैं।
2). 23,605 गड्ढों के बीच लैंडिंग : 
करोड़ों वर्षों के दौरान चंद्रमा की सतह पर अंतरिक्ष पिंड टकराने से लेकर इसकी अपनी भूगर्भीय हलचलों जैसी वजहों से क्रेटर यानी गड्ढे बनते रहे हैं।
चंद्रयान-2 की लैंडिंग के लिए 15 गुणा 8 किमी का दीर्घवृत निर्धारित किया गया है।
इस छोटे से क्षेत्र में 23,605 गड्ढे हैं।
इनकी गणना जर्मनी के ग्रह शोध संस्थान और डॉर्टमंड टेक्नीकल यूनिवर्सिटी के साथ भारत की फिजिकल रिसर्च लैबोरेट्री के वैज्ञानिकों की टीम ने की है।
टीम के अनुसार इनमें से 13,600 गड्ढों का व्यास 10 मीटर से भी कम है।
वहीं केवल 11 गड्ढे ऐसे हैं जो 500 मीटर या उससे बड़े हैं।
इनके बीच विक्रम उतारने के लिए बेहद सटीक योजना बनाई गई है।
जरा सी चूक पूरे मिशन को खतरे में डाल सकती है।
3). छह प्रतिशत क्षेत्र में ढलान 15 डिग्री से ज्यादा
इसरो को लैंडिंग के लिए पहले से ही ऐसी जगह का चुनाव करना था,
जहां ढलान 15 डिग्री से अधिक न हो। इससे विक्रम को उतारने में आसानी होगी।
हालांकि लैंडिंग के दीर्घवृत में 94 प्रतिशत जगह ढाल 15 डिग्री से कम है,
लेकिन छह प्रतिशत क्षेत्र ऐसे भी हैं, जहां ढलान 15 डिग्री से अधिक है।
स्लोप-मैप के अनुसार यह ढाल गड्ढों के किनारों की वजह से बने हैं।
विक्रम को यहां उतारने की योजना के दौरान इस खतरे से भी निपटा गया है।
4). और अपने पांवों पर लैंडिंग
चंद्रमा की सतह पर उतरने के लिए विक्रम को पूरी तरह समतल सतह देना संभव नहीं था।
ऐसे में अपने चार पैरों के बल पर उतरना भी चुनौतीपूर्ण है।
लेकिन इन्हीं पैरों में लगे शॉक-अब्जॉबर्स उसे इन झटकों से बचाने के लिए लगाए गए हैं।
लैंडिंग के बाद धूल छंटने का चार घंटे इंतजार
विक्रम के उतरने के बाद भी उसके भीतर रखे गए रोवर प्रज्ञान को अगले चार घंटे तक बाहर नहीं निकालने की योजना बनाई गई है।
इसकी वजह लैंडिंग की वजह से उड़ी धूल है। चंद्रमा के कमजोर गुरुत्वाकरर्षण में यह धूल न केवल काफी समय बनी रह सकती है,
बल्कि उपकरणों को नुकसान भी पहुंचा सकती है। प्रज्ञान जिसे 14 दिन काम करना है और चंद्र सतह पर 500 मीटर चलना है,
उसके लिए मिशन को जोखिम में डालने वाली स्थितियां होंगी।
ऑर्बिटर : यह अपना काम पहले ही शुरू कर चुका है।
उसने पहले पृथ्वी और फिर चंद्रमा की कई तस्वीरें इसरो को भेजी हैं।
2379 किलो का यह उपकरण आठ किस्म के उपकरणों से लैस है।
वे सभी चंद्रमा की मैपिंग से लेकर स्कैनिंग और भौगोलिक संरचना का विश्लेषण करने में जुटेंगे।
विक्रम और प्रज्ञान : विक्रम लैंडर का सबसे महत्वपूर्ण काम प्रज्ञान केसाथ चंद्रमा की सतह पर उतरना है।
ये दोनों मिलकर 14 दिन (चंद्रमा का एक दिन) काम करेंगे।
लैंडिंग के चार घंटे बाद सात सितंबर को ही सुबह करीब 5:45 बजे प्रज्ञान रोवर विक्रम से बाहर आकर अपने प्रयोग करेगा।
चंद्रमा का दक्षिण ध्रुव होने की वजह से यहां सूर्य की रोशनी लंबे समय तक मिलेगी।
वे इसका उपयोग अपनी बैटरियां चार्ज करने में करेंगे।
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विशेष : आगे भी काम करते रह सकते हैं
सौर ऊर्जा से बैटरियाें को चार्जिंग मिलने की वजह से कुछ वैज्ञानिकाें का अनुमान है
कि विक्रम और प्रज्ञान आगे भी काम करते रह सकते हैं।
हालांकि यह सौर गतिविधियों के लैंडिंग स्थल पर असर,
तापमान के उतार-चढ़ाव और सूर्य के प्रकाश की उपलब्धता पर निर्भर करेगा।
14 दिन के बाद रात होगी, जिसके विकट हालात अगर उन्हें बहुत नुकसान नहीं पहुंचाते हैं
तो बहुत संभव है कि कुछ समय बाद इसरो हमें सूचना दे कि ये दोनों विभिन्न प्रयोगों को अंजाम दे रहे हैं।

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