यह कैसी तरक्की है साहब, जो ए.सी. ऑफिस में बैठे हुक्मरानों को तो समझ आती है, परंतु गरीब के समझ में नहीं आती ?

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आज देश को आजाद हुए लगभग 73 वर्ष हो चुके हैं सोचो हम कहां से कहां पहुंच गए ।कभी-कभी तो लगता है सब दौड़ रहे हैं अपनी मंजिल की तरफ परंतु पहुंच कोई नहीं रहा है। आज देख कर बड़ा दुख होता है कि देश में आज भी आधे से ज्यादा आबादी रोटी कमाने के लिए घर बार छोड़कर दर-दर भटक रही है क्या यही विकास किया है हमने कि देश के लोगों को उनके गांव में उनके शहर में दो वक्त की रोटी नहीं दे पा रहे हैं ।हम कहते हैं कि हम अंतरिक्ष पर पहुंच गए हम अन्य देशों की तुलना में टेक्नोलॉजी में बहुत आगे निकल गए परंतु यह सच है कि रोटी गूगल से डाउनलोड नहीं होती है।

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उसे तो कमाना ही पड़ता है हमने जितना पैसा आज तक बड़े-बड़े पूंजी पतियों का माफ किया है काश उतना पैसा किसान को उसकी कृषि आय बढ़ाने पर खर्च किया होता तो कोई परदेस कमाने नहीं जाता आज देश की गरीब जनता को पैदल ,नंगे ,भूखे सड़कों पर चलते देखता हूं तो बहुत दुख होता है अगर यही तरक्की की है हमने 73 सालों में तो लानत है ऐसी तरक्की पर हम दूसरों में कमियां निकालने के बजाय दूसरों की गलतियों से सीखे तो ज्यादा बेहतर होगा कहां देश 2 महीने पहले विश्व गुरु बनने जा रहा था कहां आज हम रोटी को मोहताज हैं

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अगर कोरोना जैसी महामारी देश में न फैलती तो शायद हमें अपनी असलियत का पता भी नहीं चलता आज सड़क पर चलते हुए भूखे प्यासे मजदूर कामगार जब उनको कोई वाहन सड़क पर रौंदकर चला जाता है तो मानवता शर्मसार हो जाती है।
आज पूरा असली भारत सड़को पर है। वो मेहनतकश मजदूर जिनकी मेहनत से बड़े बड़े महलों के कंगूरे बने हैं, जिनके परिश्रम से कल कारखानों की मशीने धुंआ उगलतीं है,और जो चंद मुठ्ठी भर अमीरों के ऐशो आराम का हर सामान बनाते हैं,वो जो घरों में चौका बर्तन और झाड़ू पोंछा करते है आज सब एक साथ दिन रात सड़को पर है। फैक्टरी के मालिकों ने पैसा नही दिया, घरों में काम करने वालों के मालिकों ने पैसे काट लिए,मेहनत मजदूरी लॉक डाउन की भेंट चढ़ गई

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अब इनको अपने अस्तित्व के लिए जीवित रहने के लिए अपना वही घर याद आ रहा है जिसको ये परदेश में चंद रुपये कमाने के लालच में कभी छोड़ आये थे। आज ये बेघर हैं, लाचार है, वक्त के मारे भी हैं। सो सैकड़ों हजारों किलोमीटर तक पैदल ही चल पड़े है। कोई साधन नही फिर भी अपने गाँव की तरफ मुंह करके एक एक कदम नाप रहे है। सरकार के आत्म निर्भरता के हालिया नारे का इससे बड़ा उदाहरण आखिर क्या हो सकता है?
“भूख से तड़पते देखकर किसान को नींद कैसे आती होगी देश के प्रधान को”
“एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ–
‘यह तीसरा आदमी कौन है ?’
मेरे देश की संसद मौन है”
कवि धूमिल के इस अनुत्तरित प्रश्न को और आगे बढ़ाते हुए जरा उन जीवंत चित्रों को याद कीजिये जिसमे इंदौर में एक मजदूर परिवार बैल गाड़ी से अपने घर जाते हुए रास्ते मे रुपये कम पड़ने पर एक बैल बेंच देता है और फिर एक तरफ जुए पर बैल और दूसरी तरफ के जुए पर खुद मजदूर और उसके थक जाने पर बारी बारी से उस परिवार के पुरुष और महिलाएं लगकर बैलगाड़ी को खींचेते हुए अपने परिवार को अपने गाँव ले जा रहा दिखता है। इसी तरह से आगरा में एक माँ अपने घर जाने की जद्दो जहद में सड़क पर पहिया लगे सूटकेश को खींचती हुई घर की तरफ बढ़ती है
और उसका छोटा बच्चा पैदल चलते चलते थक कर सूटकेश पर लटका सो जाता है। इसी प्रकार से दिल्ली से साईकल से पलायन कर रहा एक युवक अपने छोटे बच्चे को साईकल के हैंडल पर मफलर से बांध कर और साईकल के पीछे अपनी पत्नी को बिठाकर अपने घर निकल पड़ता है। ऐसे लाखों लोग सड़कों पर भूंखे प्यासे पैदल चले जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त सरकारी आंकड़ों के अनुसार अबतक श्रमिक स्पेशल ट्रेनों से 10 लाख से अधिक मजदूरों को उनके घरों तक पहुचाया जा चुका है।
आखिर ये क्या दिखता है? यही कि महानगर मजदूरों से खाली हुए जा रहे है। अपने खून पसीने से महा नगरों को महा नगर बनाने वाला मजदूर ने खाली हांथ अपने घर की ओर रुख कर लिया है। यहाँ पर अब बड़ा सवाल ये है कि अब लॉक डाउन 4 में कुछ रियायतों के साथ जो काम धंधे शुरू होने जा रहे है आखिर उनमें काम करने के लिए मजदूर कहाँ से आएगा? और पूरी तरह से लॉक डाउन खुलने के बाद भी अगर ये मजदूर नही लौटा तो कल कारखाने कैसे चलेंगे, ऊंची इमारतें कैसे बनेंगी, अर्थ व्यववस्था कैसे पटरी पर लौटेगी। शायद इसी खतरे को भांपते हुए केंद्र सरकार ने 20लाख रुपये के पैकेज से मजदूरों की सहायता के लिए बहुत रियायत देने की कोशिश की है। इन मजदूरों की भारत की कुल जीडीपी में लगभग 6 फीसदी भागीदारी है।
“मिल मालिक के कुत्ते भी चर्बीले हैं
लेकिन मज़दूरो के चेहरे पीले हैं”
वर्तमान में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में लेबर लाज में शंशोधन किये गए है जिनसे कहा जा रहा है कि मजदूरों के हितों की रक्षा और कमजोर हो जाएगी,मजदूरों से 8 की बजाए 12 घंटे तक काम लिया जाएगा और उनको बिना कोई ठोस कारण बताए आसानी से निकाला भी जा सकेगा। मेरा देश की केंद्र और राज्य सरकारों से अनुरोध है कि मजदूरी के नियमों में जो भी शंशोधन हों वो सर्व प्रथान मज़दूरो के हितों में होने चाहिए। केवल विदेशी निवेश और विदेशी कंपनियों को आकर्षित करने के लिए भारतीय मज़दूरो के हितों पर कुठाराघात नही होना चाहिए।
हम चाहे जो दावा करें परंतु लॉक डाउन खुलने के बाद की परिस्थिति में जाएं तो लगता है इससे भी कठिन समय से इस गरीब तबके के लोगों को गुजारना पड़ेगा इनके पास न काम होगा, न पैसा होगा, न खाने को होगा, और जहां से यह काम छोड़कर आए हैं वहां जाने का साहस इनमें होगा  नहीं  ऐसी परिस्थिति में इन लोगों का गुजारा कैसे होगा यह हमारे देश के नीति निर्माताओं को तय करना होगा भगवान भरोसे छोड़ने से कुछ नहीं होगा

पुष्पेंद्र सिंह दिल्ली एनसीआर प्रमुख RJ ✍️

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