इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कार्यकारी सदस्य नहीं चाहते नाम बदलकर प्रयागराज करना

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केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय की कार्यकारी परिषद के सदस्यों को पत्र लिखकर पूछा कि शहर के तमाम लोग इसका नाम बदलकर प्रयागराज विश्वविद्यालय करना चाहते हैं, ऐसे में आप लोगों की क्या राय है?
विश्वविद्यालय की कार्यकारी परिषद के 15 सदस्यों में से 12 ने कहा- “हम ऐसा नहीं चाहते हैं.”
विश्वविद्यालय के जनसंपर्क अधिकारी डॉक्टर शैलेंद्र मिश्र कहते हैं कि मंत्रालय ने यह पत्र कई महीने पहले लिखा था लेकिन किन्हीं कारणों से उस पर फ़ैसला नहीं लिया जा सका.
शैलेंद्र मिश्र बताते हैं, “लॉकडाउन की वजह से भी कार्यकारी परिषद के सदस्यों से संपर्क नहीं हो पा रहा था. लेकिन मंत्रालय की ओर से रिमाइंडर आया कि 11 मई तक सभी सदस्यों की राय भेज दी जाए. सभी सदस्यों को ईमेल के माध्यम से मंत्रालय के पत्र से अवगत कराया गया जिनमें 12 सदस्यों ने अपना जवाब भेजा और सभी का कहना था कि विश्वविद्यालय का नाम जो है, वही रहना चाहिए.”
शैलेंद्र मिश्र बताते हैं कि इस तरह के तीन प्रस्ताव- मानव संसाधन विकास मंत्रालय, राज्य सरकार और प्रयागराज के मंडल आयुक्त की ओर आए थे.
उनके मुताबिक़, कार्यकारी परिषद से यह जानने की कोशिश की गई थी कि नागरिक समाज के लोगों की तरह क्या उनकी भी यही राय है कि विश्वविद्यालय का नाम बदलकर प्रयागराज कर दिया जाए?
दरअसल, क़रीब डेढ़ साल पहले जब इलाहाबाद शहर का नाम बदलकर प्रयागराज कर दिया गया था तभी से विश्वविद्यालय का नाम बदलने के लिए भी छिटपुट प्रयास होने लगे. इलाहाबाद शहर का नाम बदले जाने के बाद इलाहाबाद मंडल, नगर निगम और हाल ही में इलाहाबाद रेलवे स्टेशन का भी नाम बदल दिया गया.
इलाहाबाद नाम से अब सिर्फ़ विश्वविद्यालय और हाईकोर्ट ही बचे हैं. जहां तक विश्वविद्यालय का नाम बदलने की बात है तो इस बारे में चर्चा होते ही विरोध के स्वर इतने तीखे हो जाते हैं कि यह मामला कभी ज़्यादा आगे नहीं बढ़ पाता.
‘नाम बदलने का कोई औचित्य नहीं’
पिछले दिनों जब लॉकडाउन के बावजूद विश्वविद्यालय के कार्यकारी परिषद के सदस्यों के पास मंत्रालय का रिमाइंडर आया तो विरोध के स्वर तेज़ हो गए.
न सिर्फ़ तमाम छात्र और छात्र संगठन बल्कि विश्वविद्यालय के अध्यापक संघ ने भी मंत्रालय की इस कोशिश का तीखा विरोध किया. इलाहाबाद विश्वविद्यालय अध्यापक संघ के अध्यक्ष प्रोफ़ेसर रामसेवक दुबे कहते हैं कि अब तो उन्हें भी शांत हो जाना चाहिए जो इसके लिए आवाज़ उठा रहे थे, क्योंकि कार्यपरिषद ने ही ऐसा करने से इनकार कर दिया है.
बीबीसी से बातचीत में प्रोफ़ेसर रामसवेक दुबे ने कहा, “नाम बदलने का न तो कोई औचित्य है और न ही कोई ज़रूरत. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के साथ प्रयागराज तो लिखा ही जा रहा है. अब ऐसा तो हो नहीं सकता कि इलाहाबाद शब्द को ही शब्दकोश से निकाल दिया जाए.”
“दूसरे, यह नाम तो अंग्रेज़ों के ज़माने में रखा गया था, मुग़लों के ज़माने में तो रखा नहीं गया था. और सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि इस नाम से विश्वविद्यालय ने पिछले 130 साल में जो उपलब्धियां और गौरव हासिल किया है, क्या नाम बदलने वाले लोग इसी गति से इसका नाम प्रचारित कर पाएंगे?”
विरोध में ख़ून से लिखी चिट्ठी
इलाहाबाद विश्वविद्यालय का नाम बदलने की सुगबुगाहट के साथ ही छात्रों, अध्यापकों और प्रबुद्ध वर्ग के अलावा राजनीतिक क्षेत्र से जुड़े लोगों ने भी सरकार की इस कोशिश के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई.
विश्वविद्यालय के पूर्व उपाध्यक्ष आदिल हम्ज़ा ने कुछ दिन पहले ही राष्ट्रपति को ख़ून से लिखा एक पत्र भेजा था तो कई छात्र संगठनों ने ऐसा करने पर आंदोलन की चेतावनी दी थी.
इलाहाबाद विश्वविद्यालय की कार्यकारी परिषद के सदस्य प्रोफ़ेसर शेखर श्रीवास्तव ऐसी किसी भी कोशिश को न सिर्फ़ ग़लत बल्कि बेमतलब और सरकारी पैसे का दुरुपयोग बताते हैं.
प्रोफ़ेसर श्रीवास्तव कहते हैं, “शहर का नाम बदलकर आख़िर क्या मिल गया जो अब विश्वविद्यालय का नाम बदलकर उसकी पहचान मिटाने की कोशिश हो रही है? जितना पैसा शहर के नाम बदलने पर ख़र्च कर दिया गया उतने में तो एक विश्वविद्यालय स्थापित किया जा सकता था. यही पैसा ग़रीबों को मिल जाता तो बहुत कुछ हो जाता. जनता के ख़ून पसीने की कमाई इस तरह से नष्ट करना बहुत ही ग़लत और ख़तरनाक नीति है. सरकार को इससे बचना चाहिए.”
मंत्रालय ने कार्यकारी परिषद को जो पत्र लिखा था उसमें कहा गया था कि नाम बदलने की इच्छा सिविल सोसायटी के कुछ लोगों ने जताई है.
सिविल सोसायटी और बौद्धिक जगत के वो कौन से लोग हैं जो ऐसा करना चाहते हैं?
इस सवाल पर प्रोफ़ेसर शेखर श्रीवास्तव कहते हैं, “बौद्धिक लोग ऐसा नहीं चाहते हैं और ऐसी बेतुकी चाहत रखने वाला व्यक्ति बौद्धिक हो भी नहीं सकता है. केवल दिल्ली और लखनऊ में बैठे कुछ लोग ऐसा चाहते हैं.”
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र संघ अध्यक्ष और लंबे समय तक विश्वविद्यालय की कार्यकारी परिषद के सदस्य रहे श्याम कृष्ण पांडेय कहते हैं कि हमारी जानकारी में विश्वविद्यालय से जुड़ा आज तक एक भी ऐसा नाम नहीं आया है जिसने विश्वविद्यालय का नाम बदलने की मंशा जताई हो.
श्याम कृष्ण पांडेय बताते हैं, “विश्वविद्यालय से जुड़े शहर के तमाम साहित्यकार, वैज्ञानिक और दूसरे प्रबुद्ध लोग, सभी इस प्रस्ताव की निंदा कर रहे हैं. कार्यकारिणी ने सर्व सम्मति से निरस्त कर दिया. अध्यापक संघ, छात्र संघ, विश्वविद्यालय से जुड़े कॉलेजों के अध्यापक संघ सबने तो इसकी निंदा की है. हां, ऐसे कुछ लोगों ने ज़रूर यह मांग रखी है जिनका विश्वविद्यालय से दूर-दराज़ का कोई संबंध नहीं है. मेरा साफ़ कहना है कि यह किसी और की इच्छा नहीं बल्कि सिर्फ़ मंत्रालय की ही इच्छा है.”
श्याम कृष्ण पांडेय आशंका जताते हैं कि कार्यपरिषद ने प्रस्ताव को भले ही नकार दिया है लेकिन ऐसा नहीं है कि इतने भर से यह मुद्दा समाप्त हो गया है.
वो कहते हैं, “सरकार ने यदि नाम बदलने का प्रण कर ही लिया होगा तो उससे कार्यपरिषद के नकारने से कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा. लेकिन यदि ऐसा किया गया तो बहुत बड़ा आंदोलन होगा.”
बताया जा रहा है कि विश्वविद्यालय का नाम बदलने को लेकर कुछ जनप्रतिनिधियों ने भी मंत्रालय को पत्र लिखा था. फूलपुर से बीजेपी सांसद केशरी देवी भी उनमें से एक हैं.
बीबीसी से बातचीत में केशरी देवी कहती हैं, “हमारे पास तमाम लोग आए कि आप पत्र लिख दीजिए कि शहर का नाम बदल गया है तो विश्वविद्यालय का भी नाम बदल दिया जाए. उनमें विश्वविद्यालय के कई प्रोफ़ेसर भी थे. और भी कई सम्मानित लोग थे. तो हमने पत्र लिख दिया. पुराना नाम तो प्रयागराज ही था, इसमें आप लोगों को कोई दिक़्क़त है क्या?”
लेकिन विश्वविद्यालय का तो शुरू से ही नाम इलाहाबाद विश्वविद्यालय है, इस सवाल पर केशरी देवी कहती हैं, “इस मुद्दे पर बाद में बात करेंगे, विस्तार से. अभी नहीं.”
इलाहाबाद विश्वविद्यालय न सिर्फ़ देश के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक है बल्कि इसका एक गौरवशाली इतिहास भी रहा है.
आधुनिक भारत में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पुराने सिर्फ़ बंबई, कलकत्ता और मद्रास विश्वविद्यालय ही हैं. कालांतर में इन तीनों शहरों के भी नाम बदले गए लेकिन इन शहरों के विश्वविद्यालयों के नाम आज भी वही हैं.
कभी पूर्व का ‘ऑक्सफ़ोर्ड’ कहे जाने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उत्तर भारत के तमाम राज्यों से छात्र पढ़ने आते थे और साहित्य, विज्ञान, कला, दर्शन जैसे क्षेत्रों के अलावा राजनीति में भी यहां के छात्रों ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति हासिल की है.
श्याम कृष्ण पांडेय बताते हैं, “राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के अलावा इस विश्वविद्यालय ने कई राज्यों के मुख्यमंत्री, बौद्धिक जगत के हर क्षेत्र से जुड़ी विभूतियां और बड़े नौकरशाह दिए हैं. नाम बदलने की चाहत रखने वाले लोग क्या विश्वविद्यालय के इतिहास को ख़त्म करना चाहते हैं?”
श्याम कृष्ण पांडेय एक दिलचस्प बात बताते हैं, “हिन्दुस्तान में रिकॉर्ड था कि आज़ादी से पहले केवल इलाहाबाद विश्वविद्यालय में ही इतनी संख्या में भारतीय मूल के कुलपति नियुक्त हुए. सर सुंदरलाल, प्रभात चंद्र बनर्जी, जस्टिस गोकुल प्रसाद, गंगानाथ झा, अमरनाथ झा, डॉक्टर ताराचंद जैसे कई लोग आज़ादी से पहले यहां के कुलपति रह चुके हैं. उस समय के अन्य विश्वविद्यालयों में ऐसा नहीं था.”

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