साल 1861,अंडमान निकोबार द्वीप की सेलुलर जेल में कालेपानी की सजा काट रहा एक बुजुर्ग शख्स अपनी अंतिम साँसे गिन रहा था।मरते हुए इस बुज़ुर्ग को बस यही मलाल था कि उसकी मौत वतन से दूर कालेपानी की अंधेरी कोठरियों में हो रही है।
ये शख्स थे अंग्रेज़ों के खिलाफ बगावत करने का फतवा जारी करने वाले अल्लामा फजले हक खैराबादी।
अल्लामा फजले हक का जन्म सीतापुर जिले के खैराबाद में मियां सरायें मोहल्ले में मौलाना फजले इमाम के यहां 1797 में हुआ था।मौलाना फजले इमाम जाने माने विद्वान और उस जमाने मे दिल्ली सिविल कोर्ट में मुफ़्ती(उप न्यायाधीश) थे।
अल्लामा फजले हक को शैक्षिक माहौल विरासत में मिला।खैराबाद में ही शिक्षा के बाद अध्यापन कार्य शुरू कर दिया।सन1816 में ब्रिटिश सरकार में दिल्ली सिविल कोर्ट में बतौर अधिकारी नियुक्ति मिली।भारत की गरीब जनता और क्रांतिकारियों पर अंग्रेजों के जुल्म को देखकर अल्लामा का मन अंग्रेज़ो की नौकरी में नही लगा,अंततः 1831 में इन्होंने नौकरी छोड़ दी।इसके बाद झज्जर के नवाब, रामपुर औऱ अलवर रियासतों को अपनी सेवायें देने के बाद खैराबाद आ गए। 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम शुरू हो चुका था,
अंग्रेज़ो से बचते हुए जब बेगम हजरत महल ने खैराबाद का रुख किया तो यहां अल्लामा से मुलाकात हुई।बेगम हजरत महल और अल्लामा फजले हक ने सीतापुर के आसपास के लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ बगावत करने के लिए प्रेरित किया।खैराबाद से निकलकर फजले हक दिल्ली पहुंचे,मशहूर शायर मिर्ज़ा ग़ालिब अल्लामा के खास दोस्त थे।ग़ालिब के आग्रह पर उनकी पुस्तक दीवाने ग़ालिब का संपादन कार्य भी अल्लामा ने ही किया।ग़ालिब के साथ अल्लामा का उठना बैठना अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के साथ हुआ,बहादुर शाह जफर अल्लामा से कानूनी मसलों पर सलाह मशविरा किया करते थे।
अंग्रेज़ों के जुल्म अपने चरम पर थे।दिल्ली की जामा मस्जिद से अल्लामा फजले हक ने अंग्रेज़ों के खिलाफ बगावत का फतवा जारी कर दिया।देश भर में अंग्रेजों के खिलाफ खुली बगावत छिड़ गई।अंग्रेज़ सरकार ने फजले हक को गिरफ्तार कर के उनकी सारी जायदाद जब्त कर ली।कोर्ट में सुनवाई के दौरान फजले हक ने अपनी पैरवी खुद की।जज भी उनका शागिर्द था
और उनसे हमदर्दी रखता था।कई सरकारी गवाह भी बयान से मुकर गए और अल्लामा को पहचानने से इनकार कर दिया।मगर फजले हक ने मौका होने के बावजूद भी झूठ का सहारा नही लिया,औऱ भरी अदालत में फतवा जारी करने की स्वीकारोक्ति कर ली।मजबूर होकर जज ने उन्हें कालेपानी की सजा सुना दी।
अंडमान की सेलुलर जेल में कालेपानी की सजा के दौरान अल्लामा ने कई किताबें लिखी।जिनमे से “असीरतुल हिंदिया”जिसको उन्होंने कोयले से कागज पर लिखा था।उसे जेल से छूटने वाले उनके साथी मुफ़्ती इनायत उल्लाह अपने साथ ले आये और उनके बेटे को सौंप दिया।जिसका बाद में हिंदी अनुवाद भी कराया गया।
कालेपानी की यातनायें भी फजले हक के हौसलों को तोड़ नही सकी।
एक अंग्रेज अफसर ने उनसे कहा कि अगर वो फतवा जारी करने को अपनी गलती मान लें और अंग्रेज सरकार से माफी मांग लें तो उन्हें छोड़ दिया जाएगा।मगर अल्लामा फजले हक नहीं माने।आखिर कार सन 1861 में अपने वतन पहुंचने की हसरत दिल में लिए अल्लामा फजले हक ने अंडमान की सेलुलर जेल में अपनी अंतिम सांस ली।अंडमान के साउथ पॉइंट में आज भी उनकी कब्र मौजूद है।
मशहूर शायर जां निसार अख्तर और बॉलीवुड के प्रसिद्ध गीतकार जावेद अख़्तर के रूप में अल्लामा फजले हक की मौजूदा पीढ़ी आज भी उनकी विरासत को संजोए हुए हैं।जावेद अख्तर आज भी अधिकतर अपने पारिवारिक घर खैराबाद के मियां सराएँ आया करते है।
मनीष अवस्थी सीतापुर ब्यूरो चीफ राष्ट्रीय जजमेंट 