करोना संकट ने गरीबी की वास्तविकता से करा दिया साक्षात्कार
?करोना संकट ने दिखाई गरीबी की भयावहता
एक सवाल
भारत में गरीबी की दशा कितनी भयावह है? इस सवाल के जवाब में सरकारी आंकड़े और आंकलन चाहे जो भी हों, मगर करोना से उठे राष्ट्रव्यापी संकट ने वास्तविकता से हमारा साक्षात्कार करा दिया। कोरोना वायरस संकट में देशव्यापी लॉकडाउन ने भारत में गरीबों और निम्न मध्यवर्ग की वास्तविक स्थिति को बहुत ही निर्मम ढंग से उजागर कर दिया है। सूरत, मुंबई और दिल्ली जैसे औद्योगिक शहरों में अपनी रोजी-रोटी कमाने वाले लाखों मजदूर लॉकडाउन होने के बाद जिस तरह से बदहाल और बेसहारा नजर आए,
वह वास्तव में बहुत ही भयावह स्थिति है। कोरोनो वायरस संकट ने निश्चित रूप से ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि अब करोड़ों लोगों के दिल में असुरक्षा की भावना भर गई है। सरों पर गठरियां लादकर लोग पैदल ही 1000 किलोमीटर से अधिक का सफर तय करने के लिए मजबूर हैं। ऐसे कितने ही मजदूर सामने आए हैं कि जिनकी मजदूरी अगर रुक जाए तो उनके पास घर वापस जाने के लिए किराया तक भी नहीं बचता है।
कारखाने के मालिक अपने मजदूरों को 2 महीने का वेतन भी देने में असमर्थ हैं? क्या हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि देश के सभी नागरिक सरकार से एक नियमित आय पाने के हकदार होंगे। यह आय कम से कम इतनी जरूर हो, जो भोजन और दूसरी बुनियादी जरूरतों को हासिल करने के लिए पर्याप्त हो। अगर अमेरिका जैसे देश में खाद्य असुरक्षा बढ़ रही है तो भारत की स्थिति कितनी बेहतर होगी? अमेरिका में हुए एक शोध के अनुसार कोरोनो वायरस महामारी का प्रकोप बढ़ने के कारण अमेरिका जैसे देश में लगभग हर पांचवें बच्चों को खाने के लिए पर्याप्त भोजन नहीं मिल रहा है। ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन की रिपोर्ट में कहा गया है कि 12 साल या उससे कम उम्र के बच्चों की 17.4 प्रतिशत माताओं ने बताया कि पैसों की कमी के कारण उनके बच्चों को पर्याप्त मात्रा में भोजन नहीं मिल पा रहा है।अमेरिका में 18 से कम उम्र के बच्चों वाले घरों में खाद्य असुरक्षा 2018 की तुलना से लगभग 130 प्रतिशत बढ़ी है।
कोरोना वायरस लॉकडाउन में कम से कम 3 करोड़ अमेरिकी श्रमिकों ने अपनी नौकरी गंवा दी है। उम्मीद की जा रही है कि बेरोजगारी की दर शायद 20 प्रतिशत तक बढ़ सकती है। इतनी अधिक बेरोजगारी दर पिछली सदी की महामंदी के बाद से कभी नहीं देखी गई। जब अमेरिका जैसे अमीर कहे जाने वाले देश में ट्रम्प प्रशासन वर्तमान में लाखों नागरिकों के लिए 1,200 डॉलर का भुगतान वितरित कर रहा है, तो साफ है कि उदारीकरण से निकली खुले बाजार की व्यवस्था भी गरीब जनता के लिए किसी काम की नहीं हो सकती। सवाल तो केवल नीयत का है। अगर लोगों के हाथ में पैसा होगा तो वे किसी भी आपदा में अपनी न्यूनतम जरूरतें तो पूरी करने में सक्षम होंगे।
ऐसा तो होना ही था। गरीबी का क्या है, चाहे घटा लो, चाहे बढ़ा लो। गरीबी आंकने के लिए तेंदुलकर समिति के अनुसार साल 2011-12 में गरीबों की संख्या में 21.9 फीसदी की कमी आई थी। योजना आयोग के आंकलन के मुताबिक भारत के शहरों में प्रति दिन 32 रुपये से ज्यादा कमाने वाला और ग्रामीण क्षेत्र में 26 रुपये से ज्यादा कमाने वाला व्यक्ति गरीबी रेखा से ऊपर था।
भारतीय संदर्भ में नीयत की जांच-परख किसके हवाले से करें? भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी ने एक बार कहा था कि विकास योजनाओं के लिए आबंटित धन का मात्र 15 प्रतिशत ही खर्च हो पाता है, शेष भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। इच्छा शक्ति के अभाव में किसी भी प्राकृतिक संकट का सामना स्थाई रूप से नहीं किया जा सकता। जरूरत इस बात की है कि लोगों की क्रयशक्ति बनी रहे। कोरोना संकट से निपटने के लिए हुए लॉक डाउन ने दिहाड़ी मजदूरों, रेहड़ी दुकानदारों की रोजी रोटी छिन ली है। उनके सामने उत्पन्न भोजन की समस्या के समाधान के लिए कई समाजसेवी संगठनों का आगे आना सराहनीय है मगर भविष्य में आने वाले किसी भी संकट का स्थाई समाधान नहीं है।
आज करोना संकट से हमारे नेता आत्म निर्भरता सीख रहे हैं। विश्व की बड़ी आर्थिक शक्तियों में मारक प्रकार की प्रतिस्पर्धात्मक दौड़ और होड़ व्याप्त है। अगर इसी तरह चलता रहा तो प्राकृतिक संकट के साथ मनुष्य पर भी संकट बढ़ेंगे। संकट का मुकाबला करने के लिए जो कदम उठाए जाएंगे वह स्थाई नहीं होंगे बल्कि करोना संकट की भांति काम चलाऊ और सुधारात्मक ही होंगे। अगर गरीबों और मध्यवर्गीय परिवारों की क्रयशक्ति संतुष्टजनक होती तो स्कूलों में मिड-डे-मील जैसी कामचलाऊ योजना की जरूरत ही नहीं होती।यह भारत की गरीबी है, एक टैक्स फ्री फिल्म। कब तक चलेगी?