उत्तर प्रदेश के दो जिलों में दलितों पर हुए अत्याचार पर क्यों मुद्दा नहीं बना सका विपक्ष?

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लखनऊ,  पिछले सप्ताह जौनपुर और आजमगढ़ जिलों में अनुसूचित जाति के परिवारों पर अत्याचार
की दो घटनाएं इस वजह से व्यापक चर्चा का विषय बनीं,
क्योंकि प्रदेश में अनुसूचित, पिछड़े वर्गो की वोटबैंक राजनीति करने वाले दल इन घटनाओं पर चुप्पी साधे रहे।
इसके पीछे की वजह भी दिलचस्प है।
संयोगवश इन दोनों ही घटनाओं में दूसरा पक्ष मुस्लिम समुदाय से संबंधित था।
बस इसे लेकर विपक्षी दल सांप-छछूंदर वाली दुविधा में घिर गए।
शायद उन्हें लगा कि वे घटना की निंदा करेंगे या आरोपितों पर कार्रवाई की मांग करेंगे तो मुस्लिम समाज उनसे नाराज हो जाएगा
और इसका खामियाजा उन्हें भविष्य में चुनावी राजनीति में भुगतना पड़ सकता है।
वोटबैंक के चक्कर में दल :  दरअसल कई राजनीतिक दलों ने यह धारणा बना रखी है
कि मुस्लिम समुदाय से संबंधित आतंकवादियों और अपराधियों का विरोध मुस्लिम समाज पसंद नहीं करता।
वोटबैंक के चक्कर में ये दल यह नहीं सोच पाते कि उनकी यह धारणा खुद मुस्लिम समुदाय के लिए कितनी अपमानजनक है।
उन्हें शायद याद नहीं कि कश्मीर और अन्य स्थानों पर आतंकवाद का मुकाबला करते हुए
कितने मुस्लिम जवान शहीद हो चुके हैं। कुछ सिरफिरे लोग किसी भी समुदाय में हो सकते हैं,
पर पूरे मुस्लिम समुदाय को आतंकवादियों और अपराधियों का हमदर्द मानना घटिया सोच है।
पीड़ित परिवारों को सरकारी सहायता तुरंत मिल गई :
 आरोप है कि मुस्लिम समुदाय के स्थानीय लोगों ने जौनपुर में अनुसूचित जाति के गरीबों के साथ मारपीट करने
के बाद उनके घरों में आग लगा दी,
जबकि आजमगढ़ में इस वर्ग की लड़कियों से दुष्कर्म का प्रयास किया गया।
विपक्षी दल बेशक मौन रहे, पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के निर्देश पर पुलिस ने दोनों मामलों में आरोपितों
को रासुका लगाकर जेल भेज दिया।
पीड़ित परिवारों को सरकारी सहायता तुरंत मिल गई।
स्वाभाविक रूप से इसकी सराहना शुरू हुई तो मौन बैठे दलों के कान खड़े हो गए। मजबूरी में उन्हें मुंह खोलना पड़ा।

कभी जातिवादी राजनीति के लिए बदनाम रहा यूपी :

 सरकार की सराहना करनी पड़ी। उनकी बाकी प्रतिक्रिया भी नपी-तुली रही।
अनुसूचित जातियों-जनजातियों पर जुल्म नई बात नहीं। सामंती मानसिकता के समूह उनके साथ मारपीट,
घर फूंक देने और उनकी महिलाओं की इज्जत पर हाथ डालने को अपना अधिकार समझते हैं।
मुख्यमंत्री के एक्शन से यह संदेश बिल्कुल स्पष्ट गया कि अनुसूचित जातियां लावारिस नहीं हैं।
इन दो दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के आलोक में अनुसूचित वर्गो के लोग भी अपना हित-अहित समझने पर विवश हुए होंगे।
अनुसूचित जातियों के लिए मौजूदा केंद्र और राज्य सरकार ने जिस तरह काम किया,
उससे परंपरागत राजनीतिक समीकरणों में आए बदलाव वर्ष 2014 के बाद हुए लगभग हर चुनाव में देखे गए।
कभी जातिवादी राजनीति के लिए बदनाम रहे यूपी में समाज के स्तर पर राजनीति की सेहत में दिख रहा सुधार
नई उम्मीदें जगा रहा है। यदि अनुसूचित जातियां मेरिट के आधार पर राजनीतिक दलों की चालबाजियां समझने लगी हैं
अंशुल शर्मा राष्ट्रीय जजमेंट संवाददाता ✍️

 

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