महोबा : कोरोना में गुम हो गयी आल्हा की तान
महोबा 26 जुलाई। खट-खट, खट-खट तेगा बाजे, छापर-छापर चले तलवार, बड़े लड़ईया आल्हा-ऊदल, जिन से हार गयी तलवार, की गूंज वैश्विक महामारी कोरोना के दौरान गुम हो गयी है। सावन का मौसम हो और आल्हा गायन की गूंज बुन्देलीधरा पर सुनाई न दे ऐसा कभी हुआ नही, लेकिन इस बार हालात जुदा है। आल्हा की गूंज सुनाई नही दे रही है आल्हा गायन गुम है। ऐसे में युवा पीढ़ी अपनी इस सांस्कृतिक परम्परा से रूबरू नही हो पा रही है। जबकि पूर्व के वर्षो में सावन माह लगते ही आल्हा गायन की गूंज सुनाई देने लगती थी। गांव में चौपाले लगती थी और आल्हा गायन सुनने के लिये ग्रामीण जमें रहते थे, लेकिन वर्तमान समय में न तो गांव में चौपाले लग रही है और न आल्हा गायन की गूंज सुनाई दे रही है।
भुजाओं में फड़कन और बाजुओं में जोश पैदा करने वाला आल्हा गायन कोरोना के कारण इस बार चौपालों में नही सुनाई दे रहा है। 1182 ई0 में दिल्ली नरेश पृथ्वी राज चौहान और बुन्देलखण्ड के वीर आल्हा- ऊदल के बीच शहर के कीरत सागर के निकट भीषण युद्ध हुआ था। इस युद्ध में राजा परमार व उनकी सेना में शामिल आल्हा ऊदल ने दिल्ली नरेश पृथ्वी राज चौहान को खदेड़ दिया था। रक्षाबंधन के दिन हुये इस युद्ध में आल्हा-ऊदल ने विजय हासिल की थी तभी से यहां महोबा में रक्षाबंधन के दूसरे दिन विजय उत्सव के रूप में बहने अपने भाईयों की कलाईयों में राखियां बांधती है। आल्हा गायन का बुन्देली धरा से सदियों का नाता है, यह परम्परा यहां पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है लेकिन कोरोना महामारी के कारण इस बार आल्हा गायन की गूंज खामोश है। चौपालों में लगने वाली आल्हा गायन की मेहफिलें इस बार नही लग रही है। न कोई आल्हा गायन की तान खींच पा रहा है न कोई ढोलक थाप दे पा रहा है। वर्ष 2020 में एक ऐसी परम्परा खामोश है जो वीर आल्हा-ऊदल को यादों को संजोये हुये है।
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जगनिक ने अमर की वीर गाथा
महोबा। वैसे तो वीर आल्हा-ऊदल व पृथ्वीराज चौहान के बीच हुये भीषण युद्ध को सदियों का समय गुजर गया हो लेकिन बुन्देलों की इस वीर गाथा को जगनिक ने अमर कर दिया। वीर आल्हा मध्य भारत में स्थित बुन्देलखण्ड के सेनापति थे और अपनी गीता के लिये विख्यात थे। आल्हा के छोटे भाई का नाम ऊदल था वह भी वीरता में अपने भाई से बढ़ कर ही थे। जगनिक ने आल्हा खण्ड नामक एक काव्य लिखा था इसमें 52 लड़ाईयों का वर्णन किया गया है
रिपोर्ट काजी आमिल