लगता है टेलीविजन को अब मारना ही होगा

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मुख्यधारा के टेलीविजन चैनलों की तमाम डिबेट्स में टीआरपी बढ़ाने के नाम पर किस तरह का बेहूदा माहौल बनाया जाता है? यह देश के करोड़ों दर्शकों से छिपा नहीं है। ऐसे ही टीवी देखते प्रभाष जी का असामयिक निधन हुआ था । टीवी की बहस में एंकर सहित प्रतिभागियों का चीखना-चिल्लाना और तू-तू मैं-मैं के साथ ही विचारोत्तेजक और असंसदीय,अमर्यादित भाषा शैली का प्रयोग किसी दर्शक का भी रक्तचाप बढ़ाने के लिए काफी है। फिर इसमें भाग लेने वालों की दशा का अनुमान आप स्वयं लगा सकते हैं।
कांग्रेस के तेज तर्रार एवं तार्किक प्रवक्ता,विद्वान राजीव त्यागी जी की असामयिक मौत इसका जीता जाता उदाहरण है। इसके बावजूद यदि आप सोचने पर विवश नहीं हो रहे हैं कि,हम समाज को आखिर किस दिशा में लेकर जा रहे हैं ? क्या हमने ईश्वर प्रकृति -प्रदत सामान्य मनुष्य का स्वभाव को भी छोड़ने की कसमें खाली हैं ! तो वह दिन दूर नहीं जब आप स्टूडियो में बैठे व्यक्ति की मौत का लाइव टेलीकास्ट देखेंगे।
टीवी बहसों में मजाक-मजाक में लोग मारे जा रहे हैं । विभिन्न पक्षों के कितने ही समर्थक दर्शक इन बहसों के चलते हृदयाघात का शिकार होकर निकल लिए! इसका शायद ठीक-ठीक अनुमान भी नहीं है। इससे जहरीला आविष्कार इंसानियत का कोई हो ही नहीं सकता।
अब तो ऐसा ही लग रहा है कि,दुनिया के सारे बम एक तरफ टीवी एक तरफ कल को इसका शिकार आप हम या हमारा अपना कोई भी हो सकता है! एक स्वस्थ समाज के लिए यह अनिवार्य है कि,यदि आप सकारात्मकता नहीं परोस सकते तो नकारात्मकता फैलाने का आपको कोई अधिकार नहीं है। लेकिन यह सूरते-ए-हाल फिलहाल तो बदलने वाली नहीं ही है ।
इसलिए अब यह आवश्यक हो गया है कि, हम आप स्वयं ही टीवी की इन बहसों को समाप्त करें। ऐसी टीवी की मौत अब हो ही जानी चाहिए । टीवी रहा तो एक-एक करके सबको निगलता रहेगा ।वास्तविक ना सही जहनी तौर पर तो पक्ष-विपक्ष के सबके सब मारे जाएंगे! यह तय है।
सोर्स गर्गजी

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