किसानों की हितैषी सरकार ही, नही उपलब्ध करा पा रही किसानों को बीज और खाद

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गोस्वामी तुलसीदास के राम चरित मानस की ये पंक्तियां भी किसानों के दर्द को बयाँ करती हैं लेकिन किसानों के हितों की बात करने वाली सरकार को शायद ये समझ मे नही आ रहा है।
उक्त पंक्तियाँ इस प्रकार हैं,
“का बर्खा जब कृषि सुखाने। समय चुकी पुनि का पछतानी,”। 
इसका अर्थ है कि, कृषि योग्य भूमि के सूख जाने के बाद बरसात होने से भी क्या होगा जब हमारी फसल खेतों में ही सूख जाए।
देवरिया जनपद की ठीक यही कहानी है जहां एक तरफ किसान ओलावृष्टि, कर्ज आदि समस्याओं से अभी पूर्ण रूपेण स्वस्थ नहीं हो पाए तब तक किसान हित वाली सरकार में आज तक गोदामों पर बीज ही उपलब्ध नहीं हो पाया।
यदि समय बीत जाने के बाद अगर किसान हित वाली सरकार गोदामों पर बीज उपलब्ध करा भी देती है तो क्या ये कृषक के किसी काम का होगा?
इसी कारण किसान त्रस्त होकर निजी क्षेत्र के दुकानों से बीज खरीदने के लिए विवश है। वाकई किसान का जीवन एक जुआरी के भांति होता है जो अपनी चल अचल संपत्ति को दांव पर दांव जीत के लिए लगाया करता है।
ठीक उसी प्रकार किसान अपनी खेती में अच्छी उपज के लिए कर्ज पे कर्ज लेता रहता है और यदि वह कर्ज नहीं भर पाता हैै तो अपनी जीवन लीला ही समाप्त कर देता है। सारे राजनेता किसान को अपनी राजनीति का शिकार बनाते हैं।
किसानों पर ही राजनीति करते हैं किसान का अन्न खाते हैं लेकिन किसान हित की बात केवल कागजी पन्नों में ही करते हैं धरातल पर किसान के लिए कुछ भी नहीं होता यदि कोई योजना आती भी है तो
क्षेत्रीय अधिकारी उसे भी खा जाते हैं और किसान को अपने आंसू के सिवा कुछ नहीं मिलता फिर भी किसान खुशी-खुशी अपनी फसल को बोता है काटता है और सबसे बड़ी विडंबना ये है कि
किसान के खेतों के ऊपज की कीमत ये राजनेता तय करते हैं। जो सर्वथा गलत है किसान कड़ी धूप में मेहनत करता है उसे छाया नहीं चाहिए। किसान जो कड़कती धूप हो या
गरजते बादलों की बरसात या कड़कड़ाती ठंड और नंगे पैरों में चुभती चीज़ें इन सब की परवाह न करते हुए इन सारी पीड़ाओं को सहकर अपने खेत से अन्न पैदा करता है और
आज की राजनीति इतनी भ्रष्ट हो चुकी है कि किसान के अन्न का भाव भी सरकार तय करती है जब सरकार के द्वारा बीज, खाद, डीजल, पेट्रोल आदि की कीमत तय होती है तो
क्या किसान को अपने खून पसीने से उगाये हुए अन्न की कीमत स्वयं निर्धारित करने का अधिकार सरकार के द्वारा जारी नही किया जाना चाहिए?

यदि किसानों को अपनी लागत एवं परिश्रम के अनुरूप अपनी फसलों की कीमत निर्धारित करने का अधिकार प्राप्त हो जाये तो
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भविष्य में उन्हें सरकार के सामने हाथ फैलाने की आवश्यकता नही होगी या तो सरकार को हमारे अन्नदाताओं के प्रति गंभीर होना पड़ेगा एवं उनके दुख दर्द को गंभीरता से लेना होगा।

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