बढ़ती जनसंख्या का प्रकोप ही, हमारी सभी समस्याओं का कारण

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नई दिल्ली,। एक आंकड़े के अनुसार जनसंख्या में प्रतिवर्ष एक करोड़ साठ लाख बढ़ रहे हैं। अगले कुछ वर्षो में भारत चीन को पछाड़कर विश्व में सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन जाएगा और फिर अगले 10-12 वर्षो में हमारी आबादी डेढ़ अरब को पार कर जाएगी।
आजादी के समय यानी 1947 में देश की आबादी 34 करोड़ थी, लेकिन आज वह लगभग 136 करोड़ हो गई है। 
दुनिया की लगभग 18 फीसद जनसंख्या भारत में निवास करती है, जबकि दुनिया की केवल 2.4 फीसद जमीन, 4 फीसद पीने का पानी और 2.4 फीसद वन ही भारत में उपलब्ध हैं। इसलिए भारत में जनसंख्या-संसाधन अनुपात असंतुलित है,
जो एक बहुत ही चिंतनीय विषय है। यह विषय और भी गंभीर तब हो जाता है जब जनसंख्या लगातार बढ़ रही हो और संसाधन लगातार कम होते जा रहे हों।
प्रकृति के सभी साधनों की एक सीमा है, परंतु अपने देश में जनसंख्या बढ़ने की कोई सीमा नहीं है। विश्व बैंक के अनुसार करीब 22 करोड़ लोग हमारे देश में गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं।
देश की 15 फीसद आबादी कुपोषण का शिकार है। कुपोषण से मरने वाले बच्चों की संख्या सबसे अधिक भारत में है। बच्चों में कुपोषण की दर 40 फीसद है। वहीं 26 फीसद आबादी निरक्षर है।
जिस देश में हर साल 1.2 करोड़ लोग रोजगार के बाजार में आते हों वहां रोजगार भी एक बड़ी चुनौती बन चुका है। बढ़ती बेरोजगारी की हालत यह है कि सिपाही के लिए लाखों उम्मीदवार अर्जी देते हैं, जिनमें पीएचडी डिग्री धारी तक होते हैं।
नीति आयोग ने भी पानी की समस्या के संबंध में विस्तृत रिपोर्ट देकर इस समस्या की गंभीर होती परिस्थिति से देश को सावधान कर महत्वपूर्ण काम किया है।
रिपोर्ट में कहा गया कि साठ करोड़ भारतवासी पीने के पानी की भयंकर समस्या से जूझ रहे हैं। दो लाख लोग प्रतिवर्ष साफ पानी की कमी के कारण मर जाते हैं। पानी की गुणवत्ता की दृष्टि से विश्व के 122 देशों में भारत बहुत नीचे 120वें स्थान पर है।
उक्त रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 21 प्रमुख नगरों में (जिनमें दिल्ली, मुंबई जैसे महानगर भी शामिल हैं) 2020 तक पानी का गहरा संकट होगा।
देश की राजधानी दिल्ली सहित देश के शहर गैस चैंबर बनते जा रहे हैं, बच्चों की बीमारियां बढ़ रही हैं। दिल्ली में रोजाना सैकड़ों नई गाड़ियां सड़क पर आ रही हैं। भीड़ बढ़ रही है, यातायात रुक रहा है।
भारत आज विश्व की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है। विश्व के छह अमीर देशों में भारत का नाम है। हर वर्ष अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है, दूसरी ओर दुनिया में सबसे अधिक भूखे लोग भारत में ही रहते हैं।
देश के कई प्रांतों की जनसंख्या दुनिया के कई प्रमुख देशों के बराबर है। नि:संदेह देश की सभी समस्याओं के बहुत से कारण हो सकते हैं, परंतु सभी समस्याओं का एक प्रमुख और बुनियादी कारण बढ़ती जनसंख्या का प्रकोप है।
यह हैरानी की बात है कि भारत उन देशों की सूची में शामिल है जिसने सबसे पहले बढ़ती जनसंख्या और परिवार नियोजन पर नीति बनाई, लेकिन वह बुरी तरह फेल हो गई।
करीब चार दशक पहले बढ़ती जनसंख्या देश में एक मुद्दा था, लेकिन आपातकाल में जबरन नसबंदी अभियान के बाद राजनीतिक दलों एवं अन्य नीति-नियंताओं के एजेंडे से यह मामला ऐसे बहार हुआ कि
फिर उसकी सुध आज तक नहीं ली गई। क्या यह अजीब नहीं कि 43 साल पहले 1975 में जब हिंदुस्तान की आबादी 55-56 करोड़ थी, तब तो देश की बढ़ती जनसंख्या इस देश के प्रमुख नेताओं के लिए एक गंभीर मुद्दा थी,
लेकिन आज जब यह बढ़कर लगभग 136 करोड़ हो गई है तब भी कोई राजनीतिक दल इसके बारे में न तो खुलकर चर्चा करता है और न ही चिंता?
इस विषय पर नेताओं के ढुलमुल रवैये से लगता है कि उन्हें देश की चिंता कम, बल्कि अपने वोटों की चिंता अधिक है। आजादी के 70 साल बाद भी कोई राजनीतिक दल बढ़ती जनसंख्या जैसे गंभीर मुद्दे को आज तक अपने चुनावी घोषणापत्र में शामिल नहीं कर सका है।
यह शुभ संकेत यह है कि अब देश में कई सामाजिक संगठन बढ़ती जनसंख्या के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं। यह जरूरी है कि सभी सचेत लोग बढ़ती जनसंख्या के खिलाफ एकजुट होकर अपनी आवाज बुलंद करें और
राजनीतिक दलों को जाति, धर्म और संप्रदाय से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में एक प्रभावी जनसंख्या नियंत्रण नीति या कानून बनाने में मदद करें ताकि
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इस देश की जनता को बेरोजगारी, स्वास्थ्य, पर्यावरण, शिक्षा और भिन्न-भिन्न प्रकार की समस्याओं से छुटकारा मिल सके।
(लेखक इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रोफेसर हैं)

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