मोदी-शाह की रहस्यमयी सत्ता को डि-कोड करके ही जाना जा सकता है बीजेपी का सच

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संसदीय राजनीति के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि केन्द्र में पूर्ण बहुमत के साथ कोई राजनीतिक दल सत्ता संभाले हुये हो और पांच राज्यो की विधानसभा में ना सिर्फ जीत पाये बल्कि तीन बीजेपी शासित राज्य को गंवा बैठे। और लोकसभा चुनाव में वक्त सिर्फ चार महीने का बचा हो। जबकि इन पांच राज्यो में लोकसभा की 83 सीटे आती है और 2014 की तुलना में 22 सीटो में कमी आ गई।
यानी 2014 में 83 में से 53 सीट पर मिली जीत घटकर 31 हो गई तो क्या इसे सिर्फ विधानसभा चुनाव कहकर केन्द्र की सत्ता को बचाया जा सकता है। या फिर बीते चार बरस में जब सिर्फ केन्द्र की नीतियो के ही प्रचार प्रसार में बीजेपी शासित हर राज्य ना सिर्फ लगा रहा हो बल्कि ऐसा करने का दवाब भी हो। तो मुद्दे भी कही ना कही केन्द्र के ही हावी हुये और बीजेपी अब अपने तीन सबसे पहचान वाले क्षत्रपो [ शिवराज, वसुधंरा, रमन सिंह ] की कुर्सी को जब गंवा चुकी है
तब क्या बीजेपी शासित राज्यो के मुख्यमंत्रियो की बची हुई फौज [ महाराष्ट्र में फडनवीस, हरियाणा में खट्टर , झरखंड में रधुवर दास , यूपी में योगी , उत्तराखंड में
त्रिवेन्द्र सिंह रावत या गुजरात में रुपानी ] के जरीये 2019 को देखा जा सकता है या फिर केन्द्र की सत्ता के केन्द्र में बैठे नरेन्द्र मोदी-अमित शाह के रहस्यमयी सत्ता को डि-कोड कर ही बीजेपी के सच को जाना जा सकता है। क्योकि तीन राज्यो की हार ने बीजेपी के उन चार खम्मो को ही हिला दिया है जिसपर मोदी-शाह की बीजेपी सवार रही।
पहला , अमित शाह चुनावी जीत के चाणक्य नहीं है। दूसरा , नरेन्द्र मोदी राज्यो को अपने प्रचार से जीतने वाले चद्रगुप्त मोर्य नहीं है। तीसरा , हिन्दुत्व या राम मंदिर को योगी या संघ भरोसे जनता ढोने को तैयार नहीं है। चौथा , गर्वनेंस सिर्फ नारो से नही चलती और सत्ता सिर्फ जातिय आधार वाले नेताओ को साथ समेट कर पायी नहीं जा सकती है। यानी पांच राज्यो के जनादेश ने बीजेपी के उस आधार पर ही सीधी चोट की है जिस बीजेपी ना सिर्फ अपनी जीत का मंत्र मान चुकी थी बल्कि मंत्र को ही बीजेपी मान गया। यानी मोदी-शाह के बगैर बीजेपी की कल्पना हो नहीं सकती।
यानी चाहे अनचाहे मोदी-शाह ने बीजेपी को काग्रेस की तर्ज पर बना दिया। और मोदी शाह खुद नेहरु गांधी परिवार की तरह नहीं है इसे वह समझ ही नहीं पा रहे है। यानी काग्रेस का मतलब ही नेहरु गांधी परिवार है ये सर्वव्यापी सच है। लेकिन बीजेपी का मतलब अगर मोदी-शाह हो गया तो फिर संघ परिवार के राजनीतिक शुद्दिकरण से निकले स्वयसेवको का राजनीतिक होना और संघ के राजनीतिक संगठन के तौर पर बीजेपी का निर्माण भी बेमानी हो जायेगा।
ध्यान दें तो जिस तरह क्षत्रपो के अधीन राजनीति पार्टिया है जिसमें पार्टी का पूरा ढांचा ही नेता के इर्द गिर्द रहता है या कहे सिमटजाता है। जिसमें नेता जी के जो खिलाफ गया उसकी जरुरत पार्टी को नहीं होती । कुछ इसी तरह 38 बरस पुरानी बीजेपी या 93 बरस पुराने संघ की सोच से बनी जनसंघ और सके बाद बीजेपी का ढांचा भी “आप” की ही तर्ज पर आ टिका। और मोदी-शाह के बगैर अगर बीजेपी का कोई अर्थ नहीं है तो बिना इनके सहमति के कोई ना आगे बढ सकता है ना ही पार्टी में टिक सकता है।
आडवाणी, जोशी या यशंवत सिंह का दरकिनार होना भी सच नहीं है बल्कि जो कद्दावर पदो पर है उनकी राजनीतिक पहचान ही जब मोदी-शाह से जुडी है तो फिर बीजेपी को डिकोड कैसे किया जाये । क्योकि
पियूष गोयल, धर्मेन्द्र प्रधान , प्रकाश जावडेकर , निर्माला सीतारमण या अरुण जेटली संसदीय चुनावी गणित में कही फिट बैठते नहीं है और बीजेपी का सांगठनिक ढांचे सिवाय संख्या के बचता नहीं है।
इसीलिये कारपोरेट की पीठ पर सवार होकर 2014 की चकाचौंध अगर नरेन्द्र मोदी ना फैलाते तो 2014 में काग्रेस जिस गर्त में बढ चुकी थी उसमें बीजेपी की जीत तय थी । लेकिन मोदी के जरीये जिस रास्ते को संघ और तब के बीजेपी धुरंधरो ने चुना उसमें बीजेपी और संघ ही धीरे धीरे मोदी-शाह में समा गये । लेकिन तीन राज्यो की हार ने बीजेपी को जगाना भी चाहा तो कौन जागा और किस रुप में जागा। यशंवत सिन्हा बीजेपी छोड चुके है लेकिन बीजेपी को लेकर उनका प्रेम छूटा नहीं है तो
वह हार के बाद बीजेपी को मुर्दो की पार्टी कहने से नहीं चुकते । तो सर संघ चालक के सबसे करीबी नीतिन गडकरी कारपोरेट के भगौडो को [ माल्या, नीरव मोदी, चौकसी ] ये कहकर भरोसा दिलाते है कि वह चोर नहीं है। तो सवाल दो उठते है , पहला, क्या वह कारपोरेट के नये डार्लिग होने को बेताब है और दूसरा , ऐसे वक्त वह भगौडे कारपोरेट को इमानदार कहते है जब मोदी-शाह की जोडी जनता को भरोसा दिला रही है कि आज नहीं तो कल भगौडो का प्रत्यापर्ण कर भारत लाया जायेगा।
और इस कतार में बीजेपी के भीतर की तीसरी आवाज बंद कमरो में सुनायी देती है जहा बीजेपी सांसदो की सांसे थमी हुई है कि उन्हे 2019 का टिकट मिलेगा या नहीं। और टिकट का मतलब ही मोदी-शाह की नजरो में रहना है तो फिर बीजेपी का प्रचार प्रसार किसी विचारधारा पर नहीं बल्कि मोदी-शाह के ही प्रचार पर टिका होगा। यानी तीन राज्यो के हार के बाद मोदी-शाह की लगातार तीन बैठके जो हार के आंकलन और जीत की रणनीति बनाने के लिये की गई उसमें बीजेपी फिर कही नहीं थी।
तो आखरी सवाल यही है कि क्या वाकई 2019 में जीत के लिये बीजेपी के पास कोई सोच है जिसमें हार के लिये जिम्मेदार लोगो को दरकिनार कर नये तरीके से बीजेपी को मथने की सोची जाये या फिर बीजेपी पूरी तरह मोदी-शाह के जादुई मंत्र पर ही टिकी है । चूकि जादुई मंत्र से मुक्ति के लिये सत्ता मोह संभावनाओ को भी त्यागना होगा जो संभव नहीं है तो फिर
जीत के लिये कैसे कैसे नायब प्रयोग होगें जिसे भुगतना देश को ही पडेगा वह सिर्फ संवैधानिक संस्थाओ के ढहने के प्रक्रिया भर में नही छुपा है बल्कि देश को दुनिया के कतार में कई कदम पीछे ढकेलते हुये देश के भीतर के उथल-पुथल में भी जा छिपा है। और संयोग से नई सीख बीजेपी को पांच राज्यो में हार से मिल तो जानी ही चाहिये। क्योकि तेलगाना में ओवैसी को राज्य से बाहर करने के एलान के बाद भी अगर हिन्दुओ के वोट बीजेपी को नहीं मिली।
नार्थ-इस्ट को लेकर संघ की अवधारणा के साथ बीजेपी का चुनावी पैंतरा भी मिजोरम में नहीं चला। जीएसटी ने शहरी वोटरो को बीजेपी से छिटका दिया तो नोटबंदी ने ग्रामिण जनता को बीजेपी से अलग थलग कर दिया। और किसान-मजदूर-युवा बेरोजगारो की कतार ने केन्द्र की नीतियो को कटघरे में खडा कर दिया। और इसके समाधान के लिये रिजर्व बैक से अब जब तीन लाख करोड रुपये निकाल ही लिये गये है तो
फिर आखरी सवाल ये भी होगा कि क्या रुठे वोटरो को मनाने के लिये रिजर्व वैक में जमा पूंजी को राजनीतिक सत्ता के लिये बंदर बांट की सोच ही बीजेपी के पास आखरी हथियार है? यानी अब सवाल ये नहीं है कि काग्रेस जीत गई और बीजेपी हार गई। सवाल है कि देश के सामने कोई सामाजिक-राजनीतिक नैरेटिव अभी भी नही है। और देश के लिये नैरेटिव बनाने वाले  बौद्दिक जगत के सामने भी मोदी-शाह एक संकट की तरह उभरे है।
यानी बीजेपी की सरोकार राजनीति कहीं है ही नही। संघ की राजनीतिक शुद्दिकरण की सोच कही है ही नहीं । तो अगले तीन महीनो में कई और सियासी बलंडर सामने भी आयेगें और देश को उससे दो चार होना भी पडेगा। क्योकि सत्ता की डोर थामे रहना ही जब जिन्दगी है तो फिर गलतियां मानी नहीं जाती बल्कि गलतिया दोहरायी जाती है।
होना तो ये चाहिये था कि चुनावी हार के बाद मोदी कहते कि शिवराज, रमन सिंह और वसुंधरा भी एक वजह थे कि 2014 में हमें जीत मिली। तीनो ने अपने अपने राज्य में विकास के लिये काफी कुछ किया। तीनो के गवर्नेंस का कोई सानी नहीं। हां , केन्द्र से कुछ भूल हुई। खासकर किसान-मजदूर और छोटे व्यापारियो को लेकर। गवर्नेंस के तौर तरीके भी केन्द्र की नीतियो को अमल में ला नहीं पाये। लेकिन हमें मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तिसगढ में चुनाी हार से सबक मिला है। हम जल्द ही खुद को दुरस्त कर लेंगे। लेकिन हो उल्टा रहा है।
बताया जा रहा है कि मोदी-शाह ना होते तो हार का अंतर कहीं बडा होता। मोदी का चमत्कारी व्यक्तित्व और शाह की चाणक्य नीति ने ही मध्यप्रदेश और राजस्थान में पूरी तरह ढहने वाले किले को काफी हद तक बचा लिया। यानी हार के बाद मोदी-शाह से निकले तीन मैसेज साफ है। पहला, शिवराज, रमन सिंह, वसुधरा का अब कोई काम उनके अपने अपने राज्य में नहीं है। उन्हे केन्द्र में ला कर इस तरह सिमटा दिया जायेगा कि मोदी का लारजर दैन लाइफ वाला कद बरकरार रहे।
दूसरा, संघ का जो विस्तार मोदी दौर में [पिछले साढे चार बरस ] हुआ उसमें भी वह काबिलियत बची नहीं है कि वह चुनावी जीत दिला सके। यानी संघ ये ना सोचे कि चुनाव जिताने में उसका कद मोदी से बडा हो गया है। तीसरा , मोदी-शाह के नेतृत्व को चुनौती देने के हालात भी बीजेपी में पैदा होने नहीं दिये जायेगें।
लेकिन इस होने या बताने के सामानांतर हर किसी की नजर इसपर ही अब जा टिकी है कि आखिर 2019 के लिये मोदी-शाह की योजना है ?
क्योकि 2014 में तो आंखो पर पट्टी बांध कर मोदी-शाह की बिछायी पटरी पर स्वयसेवक या बीजेपी कार्यकत्ता दौडने को तैयार था लेकिन 2018 बीतते बीतते हालात जब मोदी के चमत्कारिक नेतृत्व और शाह की चाणक्य नीति ही फेल नजर आ रही है तो वाकई होगा क्या ? क्या अमित शाह कार्यकत्ताओ में और पैसा बांटेगें जिससे उनमें जीत के लिये उर्जा भर जाये। यानी रुपयो के बल पर मर-मिटने वाले कार्यकत्ता खडे होते है या नौकरी या कमाई के तर्ज पर पार्टी के हाईकमान की तरफ कार्यकत्ता देखने लगता है।
या फिर चुनावी हार के बाद ये महसूस करेगें कि जिनके हाथ में पन्ना प्रमुख से लेकर बूथ मैनेजमेंट और पंचायत से लेकर जिला प्रमुख के तौर पर नियुक्ति कर दी गई उन्हे ही बदलने का वक्त आ गया है। तो जो अभी तक काम कर रहे थे उनका क्या क्या होगा या अलग अलग राज्यो के जिन सिपहसलाहरो को मोदी ने कैबिनेट में  चुना और शाह ने संगठन चलाने के लिये अपना शागिर्द बनाया उनकी ठसक भी अपने अपने दायरे में कही मोदी तो कही शाह के तौर पर ही काम करते हुये उभरी। तो खुद को बदले बगैर बीजेपी की कार्यसंस्कृति को कैसे बदलेगें।
क्योकि महाराष्ट्र की अगुवाई मोदी की चौखट पर पियूष गोयल करते है। तमिलनाडु की अगुवाई निर्माला सितारमण करती है। उडिसा की अगुलाई धर्मेन्द्र प्रधान करते है। जेटली राज्यसभा में जाने के लिये कभी गुजरात तो कभी किसी भी प्रांत के हो जाते है। गडकरी की महत्ता फडनवीस के जरीये नागपुर तक में सिमटाने की  कोशिश मोदी-शाह ही करते है। यूपी में राजनाथ के पर काट कर योगी को स्थापित भी किया जाता है। और योगी को मंदिर राग में लपेट कर गवर्नेंस को फेल कराने से चुकते भी नहीं।
अब 2019 में सफल होने के लिये दूसरी कतार के नेताओ के ना होने की बात उठती है । और उसमें भी केन्द्र यानी मोदी-शाह की चौखट पर सवाल नहीं उठते बल्कि तीन राज्यो को गंवाने के बाद इन्ही तीन राज्यो में दूसरी कतार के ना होने की बात होती है। तो फिर कोई भी सवाल कर सकता है कि जब मोदी-शाह की सत्ता तले कोई लकीर खिंची ही नहीं गई तो दूसरी कतार कहां से बनेगी। यानी मैदान में ग्यारह खिलाडी खेलते हुये नजर तो आने चाहिये तभी तो
बेंच पर बैठने वाले या जरुरत के वक्त खेलने के लिये तैयार रहने वाले खिलाडिया को ट्रंनिग दी जा सकती है। मुसीबत तो ये है कि मोदी खुद में सारी लकीर है और कोई दूसरी लकीर ही ना खिंचे तो इसके लिये अमित शाह है। क्योकि दूसरी कतार का सवाल होगा या जिस तरह राज्यो में शिवराज , रमन सिंह या वसुंधरा को केन्द्र में ला कर दूसरी कतार तैयार करने की बात हो रही है उसका सीधा मतलब यही है कि इन तेनाओ को जड से काट देना।
और अगर वाकई दूसरी कतार की फिक्र है तो मोदी का विक्लप और बीजेपी अध्यक्ष के विकल्प के तौर पर कौन है और इनकी असफलता के बाद किस चेहरे को कमान दी जा सकती है ये सवाल भी उठेगा या उठना चाहिये। जाहिर है ये होगा नहीं क्योकि जिस ताने बाने को बीते चाढे चार बरस में बनाया गया वह खुद को सबसे सुरक्षित बनाने की दिशा में ही था तो अगले तीन महिनो में सुधार का कोई भी ऐसा तरीका कैसे मोदी-शाह अपना सकते है जो उन्हे ही बेदखल कर दें।
तो असफलता को सफलता के तौर पर दिखाने की शुरुआत भी होनी है । मोदी मानते है कि उनकी नीतियो से देश के 25 करोड घरो में उजियारा आ गया है। यानी प्रधानमंत्री आवास योजना हो या उज्जवला योजना। शौचालय हो या बिजली। या फिर 106 योजनाओ का एलान। तो 25 करोड घरो में अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन यानी 25 दिसबंर को बीजेपी कार्यकत्ता उनके घर जाकर दिया जलाये तो उसकी रौशनी से दिल्ली की सत्ता जगमग होने लगेगी।
यानी असफल होने के हालात को छुपाते हुये उसे सफल बताने के प्रोपगेंडा में ही अगर बीजेपी कार्यकत्ता लगेगा तो उसके भीतर क्या वाकई बीजेपी को सफल बनाने के लिये कार्य करने के एहसास पैदा होगें। या फिर मोदी-शाह को सफल बताने के लिये अपने ही इलाके में परेशान ग्रामिणो से दो चार होकर पहले खुद को फिर बीजेपी को ही खत्म करने की दिशा में कदम बढ जायेगें। ये सारे सवाल है जिसे वह बीजेपी मथ रही है जो वाकई चाल चरित्र चेहरा के अलग होने जीने पर भरोसा करती थी।
लेकिन मोदी – शाह की सबसे बडी मुश्किल यही है कि उन्होने लोकतंत्र को चुनाव में जीत तले देखा है। चुनावी जीत के बाद ज्ञान-चिंतन का सारा भंडार उन्ही के पास है ये समझा है। कारपोरेट की पूंजी की महत्ता को सत्ता के लिये वरदान माना है।  पूंजी के आसरे कल्याणरकारी योजनाओ को नीतियो से एलान भर करने की सोच को पाला है।
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और देश में व्यवस्था का मतलब चुनी हुई सत्ता के अनुकुल काम करने के हालात को ही बनाना या फिर मानना रहा है। इसीलिये राजनीतिक तौर पर चाहे अनचाहे ये सत्ता प्रप्त कर सत्ता ना गंवाने की नई सोच है। जिसमें लोकतंत्र या संविधान मायने नहीं रखता है बल्कि सत्ता के बोल ही संविधान है और सत्ता की हर पहल ही लोकतंत्र है।

साभार,पुण्य प्रसून बाजपेयी

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